जब में छोटा था तो एक बात मेरे मामा ने एक बात कही थी “Every Place has a thing and every thing has a place” ये पूरी तरह से कितनी सही है ये नहीं पता । इस कहावत को याद आने का एक कारण है और उसे कहे जाने के कई । जब मामा ने कहा था तब हम छोटे थे अपना कोई सामान समुचित स्थान पर नहीं रखते थे, पूरे दिन तो नहीं हाँ आधे दिन तो मस्ती जरूर करते थे । और घर वाले आधे दिन सामान को ठीक करने में गुजार देते थे । तब मम्मी की डाट में भी बाद अमाज़ा आता था तो कभी कभी बेलन के प्यार फ्री मिलते थे । और हमारी ही रोटी बनती थी । आंसुओं के साथ रोटी भी नमकीन लगती थी । फिर कभी मामा का प्यार और साथ में माँ का दुलार तो था ही । वो कहावत तब सुनी और आंसुओं से साथ यादों की तरह बह गई ।
इस कहावत का दूसरा पहलु ये है आज हम बड़े हो गए और बस में चलते है जहाँ भिन्न भिन्न प्रजाति के लोग भी आपके साथ चलते है और उनकी अदा भी जुदा होती है । ऐसे ही मुझे यदा कद मिलते रहते हैं अब ३-४ पुरानी बात है है में सुबह घर से बस के लिए निकला शायद मुझे थोड़ी देर हो गई थी । और में झक मार के सरकारी बस में ही चढ़ गया । ड्राईवर कोई 35 से ज्यादा उम्र का होगा और अनुबंधित था । ये उसकी चल से लगता था । मुझे एक बात समझ में नहीं आती की जो लॉन्ग सरकारी नहीं होते है वो सरकारी काम काज को बहुत बीप बीप करते है पर जब उसका हिस्सा बनते हैं तो वो भी वही करते हैं ऐसा मुझे उस ड्राईवर को देख कर लगा । वो इसके पहले शर्तिया किसी निजी कंपनी में ड्राईवर होगा पर वहां ऐसी गाड़ी नहीं चलता होगा इसका मुझे विश्वास है । पूरी सड़क खाली होने के बाद भी वो गति पे कभी भी गति नहीं दे सका । और तो और उसके कुछ अजीब नियम थे । मसलन गेट खाली रहे , शीशा के आगे किसी का बाल भी ना आये , डैशबोर्ड खाली रहे । उसको देख कर मुझे अपने मामा वाली कहावत याद आ आ गयी । बस की भीढ़ को नहीं देख रहा था, वो सिर्फ खुद को देख रहा था । मुझे लगता है अगर इसी तरह वो अगर निजी कंपनी में होता तो भी उसका यही व्यवहार होता या वो सवारिओं के साथ तन्मंता के साथ गाड़ी को चलाता । या ये सब उसके सरकारी विभाग से जुड़ने का नतीजा था । क्या पद आपके स्वाभाव या सोचने के लिए काफी है या आप कभी उससे उपर भी जा सकते हैं । क्या यही वो सोच है जो सरकारी और निजी कर्मचारी को प्रथक करती है । उसके काम करने का तरीका । और क्या वो जब तक सरकारी अनुबंध पर है वो इसी तरह से गाड़ी चलाएगा और जब वो निजी कंपनी में जायेगा तो पुनः पहले की भांति रफ़्तार से चलेगा । यही ख्याल मेरे मन में लगातार अंत तक रहा क्योंकि उस दिन उस ड्राईवर के इस तल्ख़ रवैये केकारण कई लोगों की बस छूटी । और न जाने कितने लोग ऑफिस जाने से महरूम रह गए होंगे । शायद किसी का इससे ज्यादा नुक्सान हुआ होगा ।
इस कहावत का दूसरा पहलु ये है आज हम बड़े हो गए और बस में चलते है जहाँ भिन्न भिन्न प्रजाति के लोग भी आपके साथ चलते है और उनकी अदा भी जुदा होती है । ऐसे ही मुझे यदा कद मिलते रहते हैं अब ३-४ पुरानी बात है है में सुबह घर से बस के लिए निकला शायद मुझे थोड़ी देर हो गई थी । और में झक मार के सरकारी बस में ही चढ़ गया । ड्राईवर कोई 35 से ज्यादा उम्र का होगा और अनुबंधित था । ये उसकी चल से लगता था । मुझे एक बात समझ में नहीं आती की जो लॉन्ग सरकारी नहीं होते है वो सरकारी काम काज को बहुत बीप बीप करते है पर जब उसका हिस्सा बनते हैं तो वो भी वही करते हैं ऐसा मुझे उस ड्राईवर को देख कर लगा । वो इसके पहले शर्तिया किसी निजी कंपनी में ड्राईवर होगा पर वहां ऐसी गाड़ी नहीं चलता होगा इसका मुझे विश्वास है । पूरी सड़क खाली होने के बाद भी वो गति पे कभी भी गति नहीं दे सका । और तो और उसके कुछ अजीब नियम थे । मसलन गेट खाली रहे , शीशा के आगे किसी का बाल भी ना आये , डैशबोर्ड खाली रहे । उसको देख कर मुझे अपने मामा वाली कहावत याद आ आ गयी । बस की भीढ़ को नहीं देख रहा था, वो सिर्फ खुद को देख रहा था । मुझे लगता है अगर इसी तरह वो अगर निजी कंपनी में होता तो भी उसका यही व्यवहार होता या वो सवारिओं के साथ तन्मंता के साथ गाड़ी को चलाता । या ये सब उसके सरकारी विभाग से जुड़ने का नतीजा था । क्या पद आपके स्वाभाव या सोचने के लिए काफी है या आप कभी उससे उपर भी जा सकते हैं । क्या यही वो सोच है जो सरकारी और निजी कर्मचारी को प्रथक करती है । उसके काम करने का तरीका । और क्या वो जब तक सरकारी अनुबंध पर है वो इसी तरह से गाड़ी चलाएगा और जब वो निजी कंपनी में जायेगा तो पुनः पहले की भांति रफ़्तार से चलेगा । यही ख्याल मेरे मन में लगातार अंत तक रहा क्योंकि उस दिन उस ड्राईवर के इस तल्ख़ रवैये केकारण कई लोगों की बस छूटी । और न जाने कितने लोग ऑफिस जाने से महरूम रह गए होंगे । शायद किसी का इससे ज्यादा नुक्सान हुआ होगा ।