मुझे याद नहीं मैंने फ़िल्में देखना कब शुरू किया, हाँ
इतना जरुर याद है की देखी बहुत सी फ़िल्में हैं. पहले आज की तरह 24 घंटे का
चैनल नहीं हुआ करते थे.एक मात्र देखने का जरिया दूरदर्शन हुआ करता था. जोकि हफ्ते
में 2
बार फिल्मे देता था शनिवार और रविवार. पर हम लोगों के पास एक और भी जरिया था वो था
वीडियो. जो अकसर हम किराये पर लाते थे. जिस समय किराये पर वीडियो लाने का चलन था
उस समय वीडियो वाले की बड़ी चाँदी हुआ करती थी. वीडियो देने से पहले वो 4-5 हितायतें देता
साथ ही वीडियो कैसट ना छूने की सलाह देता. हम सब कुछ हाँ में कहते और ले कर चले
आते.
उस समय 3-4 स्टार अपने टॉप पर थे. मिथुन,
गोविंदा, अमिताभ और जितेंदर उनमे से कुछ नाम है. हम पूरी रात के लिए विडियो किराये
पर लेते थे. वैसे मेरा मोहल्ला था तो बहुत बड़ा पर हमारी बोलचाल कम से थी, और उतना
ही कम आने-जाना व्यव्हार. सिर्फ कुछ ही परिवार थे जिनके घर आना जाना होता था. तो
जब घर में वीडियो लाया जाता तो उनको बुला लिया जाता और घर में एक छोटी-मोटी पार्टी
का माहौल होता. चूँकि हम छोटे थे तो बड़ा मजा आता की घर पर खूब सारे लोग है. उपर से
पढ़ने का कोई इरादा नहीं तो खुशी से खुशी दुगनी हो जाती थी. इन सब के बीच जो सबसे
बड़ी समस्या होती कि कौन-कौन सी फिल्मे आनी है. उस समय जो चल रही होती वो तो आती ही,
फिर होती दूसरी और तीसरी फिल्म कौन सी होगी. यह समस्या उस रात से 2-3 दिन पहले
तक होती. अच्छा हम लोग हल्ला भी ज्यादा नहीं कर सकते थे क्योंकि डर भी लगता कहीं
घरवाले भी ना डांटे और वीडियो लाने का प्रोग्राम ही रद्द ना कर दें. तो सारा काम
बड़े ही चतुराई से करना होता था. आखिर में सब मिला जुला कर 2 नई फिल्मे
और एक थोड़ी पुरानी फिल्म लाने का फैसला होता. बड़ों का भी ख्याल रखना पड़ता था.
फ़िल्में खाने-पीने के बाद लगभग 9 बजे शुरू
होती. उस दिन खाना भी फिल्म के चक्कर में जल्दी हो जाता. हम सभी को खाने पीने में
मन नहीं लगता क्योंकि अंदर से खुशी तो फ़िल्में देखने की होती और खाना पेट में जाता
ही नहीं. घरवाले जैसे-तैसे करके खाना खिलवाते और फिर टीवी के आगे मंडली जम जाती. वीडियो
वाला भी रात में हम ही लोगों के साथ टीवी देखता
क्योंकि उसे लगता की कहीं कोई गडबड हो गयी तो क्या होगा. इसलिए वो अपने एक जूनियर
को भेजता. ना जाने कितनी तार लगाने के बाद तो VCR चलता. उसके तार लगाने के साथ ही हम
सब कैसट चेक करते-करते वीडियो वाले की तरफ देखते कहीं वो देख तो नहीं रहा.
फिर वीडियो शुरू हो जाता.
मुझे याद है हर वीडियो चलने के पहले एक अजीब से धुंधली लाइन आती. कुछ दिनों बाद
हमे भी पता चल चलने लगा कि वीडियो अच्छा है या बुरा. मेरा मतलब प्रिंट से था, और
हम पहले से बोलने लगते “भईया ये
कैसट खराब है बदल कर लाओ”. जब भी ऐसा
होता तो वीडियो वाला पता नहीं VCR के किस-किस हिस्से में फूँक मरता और वीडियो सही चलने लगता. हमें वो वीडियो वाला उस दिन बड़ा
चमत्कारी लगता और सोचते की बड़े होकर में भी वीडियो वाला ही बनूँगा. पर अगले ही पल
ये सारे विचार रद्द कर के फिल्म देखने में लग जाता. मुझे फिल्मों में हीरो के साथ-साथ
विलेन भी बड़े अच्छे लगते. खैर पहले जब छोटा था तो सब बराबर ही लगते पर जैसे-जैसे
बड़ा हुआ तो लगता की विलेन अगर विलेन नहीं होता तो किसी हीरो से कम नहीं होता. क्योंकि
हर परेशानी हीरो को ही होती है खलनायक मजे करता है. सुर, सुरा और हीरोईन से कहीं
से भी कम न दिखने वाली वैम्प जो उसके साथ रहती. इतना ही नहीं वो लड़की(वैम्प) उसके
लिए किसी स्तर तक जाने को तैयार रहती. वहीँ हीरो को पता नहीं क्या क्या करना पड़ता
था. गाना गाने से लेकर, नौकरी करना, धक्के खाना, उसके पापा से शादी की बात करना
इत्यादि. मैं कभी कभी सोचता की यार हीरो से अच्छा तो विलेन ही होता है. उसे सब कुछ
पहले से मिला होता है. और वो हीरो से ज्यादा पॉवरफुल होता है. मुझे भारतीय फिल्म
इतिहास के विलेन में कुछ बहुत ही खास और अच्छे लगते हैं/थे. एक तो सदाबहार अमरीशपुरी,
फिर उनके छोटे भाई मदनपुरी. मुझे मदनपुरी की बन्दूक पकड़ने की अदा बड़ी अच्छी लगती
थी. साथ एक और थे जो बन्दूक बड़ी अदा से पकड़ते थे वो थे K.N Singh. मुझे याद
है संजय दत्त की एक फिल्म थी सड़क. जिसे में 1 हफ्ते में कोई 10 बार देखी
होगी कारण सिर्फ सदाशिव अमरापुरकर थे. क्या एक्टिंग करी थी उन्होंने उस फिल्म में.
मुझे आज भी विलेन हीरो से अच्छे हो लगते है. पुराने फिल्मों में एक बड़ी अजीब आवाज़ आती
जब हीरो और विलेन के बीच लड़ाई होती वो होती थी मुंह से निकलने वाली आवाज़ ढिशुम-ढिशुम.
ये बात मुझे मेरे पिता जी ने बताई क्योंकि मुझे लगता था की यह आवाज़ सच में निकलती
है जब किसी दो लोगों के बीच हाथापाई होती है तो. आज उन आवाज़ हो किसी फिल्मों में
सुनता हूँ तो हँसी सिर्फ चेहरे पर नहीं दिल में भी होती है.