इत्तेफाक
जनवरी 28, 2013
इत्तेफाक
मेरी दिल्ली में पहली पोस्टिंग थी. कहते हैं दिल्ली दिलवालों की है. मुझे भी
पहले दिन ऐसा ही लगा था जब में ऑफिस पहली बार पंहुचा. ऑफिस के हर आदमी ने मेरा दिल
खोल कर स्वागत किया. उनमे से कुछ लोग मेरे ही तरफ के निकले तो, दिल को तस्सली मिली
कि चलो कोई तो मिला अपनी तरफ का. सरकारी दफ्तर में पहला दिन बिलकुल नई नवेली
दुल्हन कि तरह होता है. सब उत्सुकता से देखने आते हैं, बड़े ही प्यार से बात करते
है और परिवार के बारे में कुछ ना कुछ बता कर जाते है जैसे वही सबसे बड़े हितेशी हों.
मेरे साथ भी यही हुआ. सब ने अपने तरफ से मुझे ऑफिस के बारे में बताया, मैंने भी नई
दुल्हन कि तरह बिना बोले सर हिला कर सहमति दे कर उनको खुश किया.
दोपहर के 12 बज चुके थे, ऑफिस का पहला दिन था इसलिए लंच नहीं ला
सका था. लंच तो मैंने ऐसे कह रहा हूँ जैसे
में खुद बनाता हूँ. इसलिए सभी ने मुझे अपने साथ लाए लंच में शामिल किया और भारत के
हर तरह के खाने के साथ पेट में एक प्रकार की खिचड़ी बन गयी. खाना खाने के बाद कुछ
काम ना होने के कारण नींद आ रही थी तो मैंने ऑफिस एक कोने में जगह बना कर कुछ
सोचने का नाटक करते हुए नींद लेने कि कोशिश करने लगा. इन्ही कोशिशों में कुछ
पुरानी यादें दिन के सपने की तरह आँखों के सामने आ गए.
सहारनपुर का छोटा सा घर, पिता जी के देहांत के बाद माँ कि वो जी तोड़ मेहनत जो
उसने मुझे पढ़ाने के लिए की. मुझे लगता था
कि अच्छा हुआ कि मैं इकलौती संतान था वर्ना माँ का क्या हाल होता. फिर जब से मैंने
होश संभाला तो खुद से अपनी पढ़ाई के खर्च के लिए मेहनत. बचपन से चौथाई जवानी तक सबसे
ज्यादा मेहनत, खुद को सबसे आगे रखने की. फिर रात में जाग-जाग कर बैंक की तैयारी. पर
इतने सालों की मेहनत काम आयी. और मेरा सलेक्शन स्टेट बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर के
रूप में हुआ. तभी खट-पट की आवाज़ से दिन के सपने में रुकावट आयी. ऑंखें खुली तो
देखा चपरासी बड़े ही अजीब तरीके से घूर रहा था. मैं हड़बड़ा कर उठा और चलता बना. अब शाम होने वाली थी. ऑफिस
के लोगों ने जल्दी जाने की छूट दी. मुझे
भी इसी की जरुरत थी क्योंकि कुछ अधूरे कामों को पूरा करना था.
चूँकि में अभी अकेला था इसलिए रहने के लिए किराये का कमरा ले लिए था और उसका
किराया कंपनी से ले लेता था (थोड़ा बढ़ा कर). उसे मैं कभी घर नहीं कहता था क्यों घर
अपनों से होता था और मेरा कोई अपना नहीं था. सब कुछ जुटाते-जुटाते कब 3 महीने निकल गए पता ही नहीं चला. मेरा कमरा अब तक लगभग सभी जरुरत की चीजों से
भर चुका था. पर अब तक कमरा ही था. इसी बीच समय निकाल कर मैं घर भी हो आया. माँ ने
अकेलेपन का बहाना बना कर दिल्ली आने से साफ़ मना कर दिया था. अब मैं दिल्ली अपना दिल
बहलाने के लिए एक साथी भी ले आया था, मेरे मामा का दिया हुआ कंप्यूटर. जो उन्होंने
लोगों को चूना लगा-लगा कर मेरे लिए बनाया था. वो था तो आदम ज़माने का पर था तो कंप्यूटर.
चूँकि बचपन से थोडा जुगाड़ कि आदत थी तो मोबाइल से ही कनेक्ट कर के इन्टरनेट का
स्लो स्पीड में मज़ा लेने लगा. फेसबुक पर मेरा अकाउंट खुल चुका था. वो भी सबके कहने
पर खोल दिया पर प्रयोग ही नहीं करता था.
पर पिछले कुछ दिनों से फेसबुक पर मेरी उपस्थिति हर रोज हुआ करती थी. मैं एक
नियत समय पर फेसबुक पर ऑनलाइन होता और सिर्फ एक से ही चैटिंग करता. उसका नाम
सारिका था. मेरे ख्याल से मेरे और उसके प्रोफाइल में एक ही बात समान थी वो थी हम
दोनों के फेसबुक में मात्र 5 ही फ्रेंड थे. वो दिल्ली
में एक प्राइवेट कम्पनी में जॉब करती थी. क्या करती थी ये कभी नहीं पूछा नहीं, ना
ही उसकी कंपनी का नाम! कभी-कभी खुद पर गुस्सा भी आता, पर सोचता था पूछने पर कहीं उसको
बुरा न लग गया और वो बात करना न छोड़ दे? इसी सब को सोचते-सोचते हमारी बातचीत के करीब
४ महीने हो गए. हमारी बस ऐसे ही किसी न किसी मुद्दे पर बात होती थी. मुझे लगता था कि
मेरे मन में उसके प्रति एक खास कोना बन चुका है क्योंकि पिछले 3 महीने में शायद ही कोई दिन रहा होगा जब मैं ऑनलाइन नहीं आया हूँ. इतना तो मैं
स्कूल के दिनों में भी अनुशासित नहीं था.
फिर एक दिन मामा का फ़ोन आया और मुझे गाँव बुलाया. मैं छुट्टी लेकर पंहुचा. थोड़ा
सा डरा हुआ था कि क्योंकि इस तरह मामा जी ने मुझे कभी बुलाया था और अब कुछ दिन
सारिका से बात न कर पाने का दुःख भी था. घर पंहुचा, तो देखा सारा का सारा कुनबा
जमा हुआ है. मामा, मामी, मौसी, मौसा और न जाने कौन-कौन. मेरे मन मैं कई तरह के
सवाल उठने लगे. मामा ने मेरे पूछने से पहले मुंह में एक लड्डू डालते हुए बोले “बेटा
बधाई हो घर में दुल्हिन आ रही है”. मैंने भरे हुए मुंह से बोला “मतलब मामा आप इस
उम्र! छी छी आपको शर्म नहीं आई. अब मामी का क्या होगा”. मामा बोले “चल हट गधे”. हम
तो अभी ही तैयार हैं पर तुम्हारी मामी ही नहीं मानती. मैंने हँसते हुए बोला बोला
फिर? मामा बोले तुम्हारी शादी पक्की कर दी है और घर में तुम्हारी दुल्हिन आ रही
है. मुझे काटो तो खून नहीं. अब लड्डू मुझे मीठा से ज्यादा कड़वा लग रहा था. माँ को
देखा तो वो आंसुओं के समंदर में खुश थी. फिर उस रात मैंने मामा को समझाने कि लाख
कोशिश की पर बात न बनी. अपनी होने वाली दुल्हन के बारे में बस इतना पता चल कि वो
लखनऊ की है और वहीँ से एमबीए करके दिल्ली में मौसी के यहाँ रह कर नौकरी करती है. पापा
लखनऊ में ही पशु चिकित्सक हैं पर डिस्पेंसरी कम ही जाते हैं. लड़की छोटी है, बड़ी
बहन लखीमपुर में ब्याही है. जीजा थोड़ा कम कमाता है पर जमीन जायदाद से अमीर है.
3 दिन के बाद घर से आया और आते ही ऑफिस चला गया. दिल
में में एक अजीब कि कसक थी, क्या थी वो मुझे खुद न पता थी. पता नहीं कैसे ऑफिस
वालों को शादी का पता चल गया था. पूरे दिन ऑफिस में उसी की बात चलती रही. जैसे-तैसे
ऑफिस से घर पंहुचा, खटारा खोल कर फेसबुक चेक किया तो सारिका का एक लम्बा चौड़ा मैसज
था. जिसमे उसने लिखा था कि “अब वो शायद ही ऑनलाइन आए क्योंकि उसकी शादी पक्की हो
गयी है. और मैं अपने घर वापस जा रही है. तुमसे बात करके अच्छा लगता था और अगर मेरे
पास थोड़ा समय होता तो तुम्हारे बारे सोचती. पर ऐसा नहीं हो सका. और तुमने कभी
मिलने के बारे में भी नहीं पूछा न ही मैंने कभी. जिसका मुझे ता उम्र अफ़सोस रहेगा.
जिससे मेरी शादी पक्की हुई है वो बैंक काम करता है. पता नहीं शादी के हमारी मैं
जॉब करू न करू. पता नहीं तुमसे मेरी बात हो न हो इसलिए आज ही कह रही हूँ मुझे तुम
अच्छे लगते थे और सच्चे भी. तुम्हारे जवाब की प्रतीक्षा में, तुम्हारी सारिका”, यह
पढ़ तो मेरा बचा हुआ दिल भी टूट गया. एक पल के लिए सोचा कि जवाब लिख दूँ फिर सोचा
कोई फायदा नहीं. दिल भी साला ऐसे टाइम पर फायदा नुकसान सोचता है ये मुझे उस दिन ही
पता चला.
हमारे यहाँ हम कितने ही आगे आ जाएँ पर कुनबा पीछे ही चलता है इसी कारण बात तो
दूर शादी से पहले न मैंने अपनी होनी वाली श्रीमती को देखा और शायद उन्होंने भी
नहीं देखा होगा.. खैर शादी की घड़ी भी आ गयी. मैं घोड़े पर भी चढ़ गया. गौना भी साथ हो
गया. हम वापस कार से सहारनपुर आ गए. चूँकि पहली-पहली बार शादी हुई थी तो मैं नर्भस
था. अब तक हमने ठीक से बात भी नहीं की. पता ही नहीं चला कब घर पँहुचे. उसके बाद घर
में एक के बाद एक रीती-रिवाज़. रात मैं 11 बजे के करीब अपने
कमरे गया जो मेरा नहीं लग रहा था क्योंकि जन्म के बाद पहली बार वो कमरा फूलों से
सजा हुआ था और मुझे अन्दर जाते हुए खुद अजीब लग रहा था. जैसे-तैसे अन्दर गया. अपने
ही बिस्तर पर पराये कि तरह होले से बैठा. इससे पहले कि मैं कुछ पूछता मेरी श्रीमती
जी की आवाज़ मेरे कानों में आती है “आपने फेसबुक पर जवाब क्यों नहीं दिया”. मैं
सन्न रह गया कि ये फेसबुक कहाँ से आ गया. मैंने पूछा “क्या हमने कभी फेसबुक पर बात
की है”. माफ़ कीजियेगा मैंने अभी तक आपको मेरी श्रीमती जी का नाम नहीं बताया. मेरी
श्रीमती का नाम सुरभि है. तब सुरभि ने बताया हाँ. अब तो मैं और भी सन्ना रह गया.
गिनती के 7 मित्रों में 2 लड़कियां थी एक 5 लड़के. और उन दोनों में कोई भी सुरभि नाम का नहीं कोई नहीं था. मैंने बिना
बोले सर हिला कर ना में जवाब दिया. सुरभि की आवाज़ में मेरे से ज्यादा आत्मविश्वास
था. उसने उसी आत्मविश्वास से बोला सारिका को जानते थे? मैं हक्का बक्का रह गया!
मैंने कहा तू...तू...तू...तुम! सारिका. सुरुचि ने बोला ह..ह..ह..हाँ मैं सारिका.
सारिका मेरे घर का नाम है. और उसी के नाम से मैंने वो आईडी बनायीं थी.
फिर मैंने एक लम्बी साँस ली और पूछा तुमने मुझे कैसे पहचाना. सारिका उर्फ़
सुरभि ने बोला कि फोटो मैंने नहीं लगायी थी पर तुमने तो लगायी थी ना वो पासपोर्ट
साइज़. फिर हम दोनों के सामने वो सारे लम्हे जी उठे जो हमने एक साथ बांटे थे.
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