मेरे ऑफिस से घर और घर से ऑफिस जाने की यात्रा की कहानियाँ और दैनिक जीवन के कुछ लम्हों के साथ दिल से निकलने वाले कुछ अनछुए पहलू जिन्हें लिख कर मुझे अच्छा लगता है. मुझे आशा है कि आपको पढ़ कर भी अच्छा लगेगा.
बस हुई खराब और रविवार हुआ बर्बाद पतानहीं कभी कभी मुझे क्या होता है की मेरा मनअचानक किसी काममें नहीं लगता है ।और कभी कभी ऐसा होता है मन या तन मन धन सब के सब उसी में लगता है । इसका कारण मैं आजतक नहीं जान पाया । और आगे का भी कोई इरादा नहीं लगता । इसका भी कारण पता नहीं है । शनिवार को काम कुछ नहीं था । बस चंद लाइन का काम करके परे दिन फरारी कटी ऑफिस में । कभी इधर जाता कभी उधर जाता । क्योंकि कोई काम नहीं था और अगर बॉस के सामने आता तो वो कोई न कोई काम थमा देते जो मुझे करना पड़ता । इससे अच्छा था की झूठे काम का बहाने बनाते रहो और टाइम पास करो । जैसे तैसे दिन पल पल कट रहा था । हर पल पल पल पर भारी था । कभी तो पल मुझे पर भारी पड़ता तो में सोफे पर भरी हो जाता । और झूठे चिंतन की मुद्रा बना कर पल –पल को धोखा देने की कोशिश करता । कभी खुद को लगता की सफल हो गया तो कभी लगता नहीं यार थोडा और काम करना है अभी । चलो जैसे तैसे करके शाम में ५ बजे घर जाने का प्लान बना । अब तो बैचेनी और बढ़ गयी थी। ऑफिस से निकला तो लगा क्यों निकल आया । ऑफिस में ही अच्छा था । मुझे जादू का वो संवाद याद आ गया “धूप” । रोड आज उतनी ही खाली थी जितनी अन्य दिनों भरी रहती है । मैं भी जादू को याद करता हुआ बस स्टैंड की तरफ रवाना हो गया । सोचा की शायद बस जल्दी मिल जाये तो काम बन जाये और में ऑफिस से घर जल्दी पहुच जाऊ पर हाय रे मेरी किस्मत । ऐसा उस दिन भी नहीं हुआ । में बस स्टैंड पर खड़ा खड़ा धूप धूप करता रहा और बस उतनी ही देर से आई और जब आई तो सारी उम्मीदों पर पानी फेरती हुई आई । क्योंकि बस ठसाठस भरी हुई थी । और बड़ी मुशील से एक सुरक्षित जगह पर खड़े होने लायक सीट मिल पाई । अब तो थोडा थोडा गुस्सा भी आ रहा था की ऐसा मेरे ही साथ होता है या कोई और भी इसका भागीदार है जिसे मुझे ही ढूंढ कर अपना गम बांटना पड़ेगा । बस आज अपने रफ्तार पर थी और मुझे लगा की अगर ऐसी ही बस चलती रही हो शायद ये आधे घंटे में मुझे अपने स्टॉप तक पंहुचा दे । पर वो कहावत है न की जब आपकी किस्मत खराब हो तो ऊंट पर भी बैठ जाओ कुत्ता जरूर काट खायेगा । वही कुछ हुआ मेरे साथ । १५ मिनट बाद ही बस खराब हो गयी । और बस ने न चलने की कसम खा ली । अब तो गुस्से के से मेरे साथ साथ कई लोंगो का परा तापमान का साथ दे रहा था । और शायद तभी उस दिन रिकॉर्ड गर्मी थी ।पूरे १ घंटे के करीब धूप धूप करने के बाद बस ने अपनी पुरानी चाल पकड़ी पर इस बार बस नयी थी मतलब दूसरी थी । और मज़े की बात ये थी की इस बार में सीट पर बैठा था और जो पिछली बस में बैठा था वो खड़ा था । मुझे अंदर से थोडा थोडा अच्छा लगने लगा था । इसमे मेरी कोई गलती नहीं है की मैं बैठा ये उस महोदय का ही निवेदन था की मैं बैठ जाऊ । क्योंकि उनका कहना था की वो दिन भर बैठे ही रहते है । तो उनको बस में बैठना उतना पसंद नहीं है । तो उन्होंने अपनी सीट स्वेच्छा से मुझे दे दी । मैं भी बड़ी इच्छा से उस पर विराजमान हो गया । और तब तक रहा जब तक मेरा स्टैंड नहीं आ गया । पर उस दिन का बुरा साया रविवार तक मेरे साथ रहा । जिसने मेरा रविवार बर्बादवार बना दिया ।
ओए कल फ़्राइडे था मेरा मतबल गुड फ़्राइडे से है तो कल ज्यादा काम नहीं था न आने मैं कोई दिक्कत हुई और न जाने में ।ये सुबह जब घर से निकला तो पता चल गया की आज छुट्टी का दिन है । पर मेरी नहीं है इसका कोफ़्त सबसे ज्यादा होता है जब घर मैं सबकी छुट्टी हो और किसी एक को जाना पड़े तो अपने स्कूल दिनों की याद आ जाती है जब हम सब भाई बहन स्कूल जाते थे और जब कोई एक नहीं जाता था तो बड़ा खराब लगता था और दिन भर एक ही ख्याल आता था की भैया या दीदी घर में अभी क्या कर रही होंगी या होंगे । घर वापस आने पर सबसे पहला सवाल यही होता था की आज क्या क्या किया कार्टून देखा या मैच खेला । तब घरवालों पर गुस्सा आता था की हमें ही क्यों या हमें भी भैया वाले स्कूल मैं क्यों नहीं पढाया । कम से कम छुट्टी तो मिलती । और आज कल लगता है कैसा ऑफिस मिला है जन्हा गुड फ़्राइडे को भी छुट्टी नहीं मिलती । चलो कोई नहीं शास्त्रों में कहा है “मनुष्य कभी संतोषी नहीं हो सकता अगर वो संतोषी हुआ तो वह मनुष्य नहीं है” तो क्या है ये आप खुद ही निर्णय करे । सुबह सुबहमें क्यों अपना मुँह खराब करू ......राम राम । कल सुबह आते वक्त लगा की बस मेरे दादा की है जन्हा चाहो बैठो जन्हा चाहो घुमो । जो सफर 1 घंटे मैं होता था वो मात्र ३५ मिनट मैं हो गया । कल सबके पास टाइम था मेरे पास और सबके पास भी । ऑफिस भी ठीक थाक ही रहा कुछ खास काम नहीं था । जाते वक्त भी मुझे लग गया था की आज फिर शाम में बस फिर मेरे दादा की होने वाली है । काश में आज फिर कार मांग लेता उफ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ़ । कोई नहीं फिर कभी मांग लूँगा । स्टैंड पर आज फिर कोई पुराना चेहरा नहीं था सब नए थे क्योंकि कलगुड फ़्राइडे था । बस आने पर कल उतना उत्साह नहीं था जितना और दिन होता था की सीट पाने में कितना दिमाग लगाना पड़ता है । कल तो दादा की संपत्ति थी कंही भी बैठो । मैं इस बात से हैरान था की कल लिखूंगा क्या पर वो कहते है जन्हा चाह वंहा राह । एक सज्जन अपने परिवार के साथ गलत बस मतलब हमारे वाले मैं चढ गए । जैसे ही उन्होंने टिकट के लिए जगह बताई सबके चेहरे पर एक खुशी की किरण चमक उठी । क्योंकि सब कोई किसी से बात करने का बहाना ढूंढ रह थे । फिर क्या था एक के बाद एक उनको एक्सपर्ट राय मिलने लगी । कोई ऑटो के लिए कहता कोई मेट्रो के लिए तो कोई उनको बस का ही रूट समझाता अब आप समझ ही गए होंगे बस का रूट किसने समझाया होगा। मैंने भी सोचा बहती गंगा में हाथ धो लेने चाहिए मैंने भी एक महान एक्सपर्ट होने का सबूत दिया और सरे रूट साथ बता दिए साथ मैं फायदे और नुक्सान भी । अब तक तो मेरे ख्याल में वो किसकी बात मानते ये सबसे बड़ा पंगा था उनके लिए । वो सब एक दूसरे का मुह देख रहे थे । अब उन्होंने कौन सा फैसला लिया ये उनको ही पता था बस हमको इतना पता चला की उन्होंने दूसरे नंबर का टिकट लिया और वो भी अपनी दादा की सम्पति पर हक ज़माने बैठ गए । वैसे कल का सफर एक तरह का सुख ही था । बड़ा ही अच्छा लग रह आता कल के सफर मैं ना कोई भीढ़ न कोई शोर न कोई मचमच न खचखच अरे लो मुझे पता ही नहीं चल कब मेरा स्टैंड आ गया ।