मेरे ऑफिस से घर और घर से ऑफिस जाने की यात्रा की कहानियाँ और दैनिक जीवन के कुछ लम्हों के साथ दिल से निकलने वाले कुछ अनछुए पहलू जिन्हें लिख कर मुझे अच्छा लगता है. मुझे आशा है कि आपको पढ़ कर भी अच्छा लगेगा.
बहुत पहले की एक कहावत है की “मन चंगा तो कठौती में गंगा” । तब जब इसे कहा गया था तब शायद या तो यमुना का अस्तिव नहीं रहा होगा या फिर शायद उसमे कोई नहाता नहीं होगा । या एक कारण और होगा वो है की वो पाप नहीं धोती होगी । पर आज तो क्या गंगा क्या यमुना दोनों ही सिर्फ कपड़े धोने के काम में लायी जाती है । खास कर बड़े बड़े शहरों में चाहे वो कानपुर हो दिल्ली । उनकी हालत दोनों जगह बिगड़ी है ।
सरकार ने दोनों को साफ़ करने के नाम पर न जाने कितने करोड़ो रुपये पानी के नाम पे पानी की तरह बहा दिया । और वो पैसे अपनी की तरह बहते ही रहे पर फिर भी गंगा मैली यमुना मैली की मैली ही रही । कितने स्वयंसेवकों न इसी बहाने अपने वारेन्यारे कर लिए । शायद अब वो उस गंगा किनारे भी नहीं जाते होंगे जहाँ से उन्होंने शुरुवात की होगी । बस सफाई के नाम पर करोड़ो अंदर करने में खुद मैले हो गए पर गंगा साफ़ न हुई ।
कभी कभी लगता है की न जाने क्या सोच कर रीती रिवाज़ बनाये गए होंगे की घर की पूजा का सारा सामान अगर आप गंगा में डालेंगे तो पुण्य मिलेगा उनका मतलब शायद पोलिथिन से नहीं होगा । क्योंकि उस समय ये सुविधा उपलब्ध नहीं रही होगी अगर होती तो आज के नियम भी कुछ और होते । तब शायद गंगा का नाम भागीरथ हो रहता और वो आज इतनी पवित्र नहीं मणि जाती और न ही यमुना । हालाँकि गंगा को सबसे सबसे पवित्र नदी मन जाता है और पुरे भारत वर्ष में सबसे ज्यादा मान मिलता है । गंगा पर ना जाने कितनी फ़िल्में बनी हिट हुई और लाखों कमाएँ । पर गंगा को क्या मिला तारीख पर तारीख । हर साल गंगा को सफाई के लिए नई तारीखे मिलती है चाहे वो कोर्ट हो या मंत्रीमंडल या फिर श्रद्धालुओं के मन में गंगा सफाई के प्रति पूर्ण आस । एक बार जोश के साथ गंगा की कुछ घाटों की सफाई होती है साथ में एक गंगा आरती का गाना बनता है, योग बाबा थोडा भाषण देते हैं ताली बजती है थोडा साफ़ होता है 2-3 तक अखबार में सुर्ख्रियाँ बनती है और फिर वही पुनः मुश्को भवः वाली बात होती है । इतना कुछ होता है पर गंगा या यमुना साफ़ नहीं होती साफ़ होती है तो बस सरकार के जेब से मुद्रा, अखबारों से स्याही और व्यर्थ में किया गया श्रम । जिसके लिए खुद गंगा और यमुना अगर बोलती तो वो भी मना कर देती ।
बात ये है की एक और कहावत कही गई है की “दान की शुरुवात घर से की जाती है” तो मेरा मानना है की गंगा और यमुना की सफाई भी घर से शुरु करें । कम से कम पोलिथिन तो नदिओं या नालों में न फेंके और साथ ही घर में पेड़ पढ़ो की संख्या बढ़ाये या नये लगाये जिससे घर में निकलने वाला निर्वाल (पूजा पर चढ़े फूल ) उनमे डाले जा सके जिससे पेड़ के साथ साथ फूलों को भी समुचित विकास मिलेगा और हमें बेहतर घर । साथ ही मेरा पूजा के सामान बनाने वालों से अनुरोध है की सामानों पर भगवानों के चित्रों से बचे जिससे पूजा के बाद उन्हें कंही भी रखा और किसी को भी दिया जा सके । कुछ इसी तरह के नये ख्यालों से सरकार से द्वारा दिया गया हमारा ही धन गंगा की सफाई के साथ साथ न जाने कितने सुखाग्रस्त जगहों की प्यास बुझा सकता है । मैं अपने बस की यात्रा के दौरान देखता हूँ की पुल पर से लोग न जाने क्या क्या फेकते रहते है जिनकी मदद के लिए बकायदा सरकार ने पुल की रेलिंग पर बने जालों को
कटवा रखा है जिससे सरकार के लिए किसी तरह की धार्मिक परेशानी न हो ।
विशेष : उपर जो भी लिखा है वो व्यक्तिगत राय और सुझाव है । पाठकों का सहयोग सम्मानीय है ।
आज कल कुछ दिनों से दिन बड़े मासूमियत से गुज़र जाते हैं । पता की नहीं चलता की कब दिन गुज़रेगे और मुझे ऑफिस से घर जाना है और जब घर पर रहता हूँ पता ही चलता की कब रात कट गई, सुबह हुई और फिर ऑफिस जाने का मन नहीं करता है । पर प्रकृति का जो नियम है उसको आप कब तक पीठ दिखायेंगे कभी तो सामने आने होगा उसके यही सोच कर मैं रोज उसका सामना करता हूँ और देर से ही सही पर ऑफिस जाने की रोज वही तैयारी करता हूँ ।
इन सबके बीच मैंने एक चीज़ देखी की जब आपका मन किसी विशेष काम या जगह में नहीं लगता तो हर कोई उसी के बारे में ज़िक्र करता है । कभी-कभी कुछ लोग अनजाने में करते है, कभी कुछ जानबूझ कर करते है । पर अगर आप उसी चीज़ को आनंद में लेना शुरू कर दें तो सारी तरह की चर्चा खत्म हो जाती है ।
खैर मेरे बस का सफर जारी है और अब कॉमन वेल्थ भी खत्म हो गए हैं । पर उसको कराने वालों के पीछे अब खेल का खेल हाथ धो कर पीछे पड़ गया है । पर एक खेल में जहाँ कईओं के मुह बीप-बीप से बाहर गए वन्ही बहुत से लोगों को ब्लू लाइन बसों से बहुत राहत मिली । शीला जी ने भी दिल्लीवासियों को धन्यवाद बाद दिया की कॉमन वेल्थ में सहयोग देने के लिए शायद ब्लू लाइन बसों को पूरी तरह हटा लेना उसी का उपहार है । शीला जी ने सोचा की दिल्ली वाले भी याद करेंगे की बड़े दिल वाले मुख्यमंत्री ने ब्लू लाइन को हटा दिया या फिर इसके पीछे खेल पैसों का है जो दिल्ली के सरकारी बस ने खेलों के दौरान कमाए । पर कोई नहीं हो सकता है ब्लू लाइन बंद होने से रोज़ ना जाने कितने मोबाइल चोरी होने से बचे, ना जाने कितनी महिलाओं को रहत मिली होगी जो रोजाना मज़बूरी में ब्लू लाइन बस में न जाने क्या क्या सहती हैं ।
आज कल लड़कीयों मैं न जाने क्या फैशन का तडका लगा गया है ये सब पश्चिमी हवा है है आधुनिकता की नई परिभाषा । टीवी में जो कपडे आये नहीं वो अगले दिन आप किसी न किसी लड़की पहने देख सकते हैं । मेरे ख्याल से उनको भी अच्छा लगता है जब वो नये कपडे पहन कर निकले और लड़के पलट-पलट कर देंखे । ये उनकी सोच है और लड़के तो होते ही इस मामले में बेरोजगार,उनको लागता है कोई उनको ऐसा ही कोई रोजगार दे दे । चाहे उनको तनख्वाह कम ही क्यों न मिले वो काम करने को तैयार हो जायेंगे ।
हुआ कुछ यूँ की मैं स्टैंड पर अपनी बस के इंतज़ार में खड़ा था । सामने एक बड़ी शालीन से युवती खड़ी थी जींस लगता था जैसे खाल से साथ सील दी गई हो । तभी सामने से एक स्कूटी आ कर रुकी, शायद वो उसकी कोई दोस्त होगी । दोनों साथ जाने की तैयारी करने लगी मुझे देख कर अच्छा लगा की दोनों हैलमेट पहन कर जाने की तैयारी में थी पर उसके बाद जो हुआ वो मेरे पुरे दिन की खुराक थी । ड्राईवर सीट वाली तो आराम से बैठ गई पर पिछली सीट पर जिसे बैठना था वो उस पर पहुच ही नहीं पा रही थी क्योंकि उनकी जींस इतनी टाईट थी की उनसे उस पर बैठाजी नहीं जा रहा था । उन्होंने सभी तरीकों से प्रयास किये पर वही ढाक के तीन पात । अब तो सबके सब देखने वालों के लिए ये एक खेल हो गया था । कुछ तो उनकी मदद करने भी पहुँच गए । कम से कम 15 मिनट की जद्दोजेहद के बाद ड्राईवर हो हटा कर पहले खुद बैठी फिर ड्राईवर वाली मैडम बैठी और साथ में २ लोंगो ने स्कूटी की संभाले रखा ।
मुझे लगा की इस तरह जींस तब इतनी परेशानी वाली है तब तो मैडम को दैनिक जीवन में न जाने क्या क्या देखन पड़ा होगा । पर बस स्टैंड जो हुआ उससे में उन दोनों नहीं भूल पाउँगा ।