मेट्रो में लद्दाख का अनुभव
अक्टूबर 04, 2012
मेट्रो
में लद्दाख का अनुभव
लद्दाख
के बारे में मुझे सबसे पहले जो याद आता है वो है बेहतरीन नज़ारा, जो सिर्फ
टीवी में देखा है. लद्दाख मुझे शुरू से ही अच्छा लगता है. पर दूर इतना है पूछो मत.
आज़ादी से पहले जब आज़ादी के आन्दोलन होते थे तो सबको दिल्ली में प्रदर्शन करने के
लिए कहा जाता था. चूँकि तब यातायात के साधन पर्याप्त नहीं थे इसलिए किसी ने कह
दिया कि “दिल्ली अभी दूर है” पर शेर को
सवा शेर मिलते हैं. वक्ताओं ने आन्दोलन करने वालों में इतना जोश भर दिया और
"दिल्ली अभी दूर है" का नारा "दिल्ली अब दूर नहीं" में बदल
गया. इस नारे को बदलने में कितना समय लगा ये तो पता नहीं पर लद्दाख भी दूर है का
नारा मेरे लिए पिछले कई वर्षों से नहीं बदला.
सुना
है लद्दाख घूमने के लिहाज़ से बहुत कि उत्तम जगह है. हर साल देश के कोने कोने से
बहुत सारे लोग साल लद्दाख जाते हैं. कुछ कार से जाते हैं से कुछ मोटरसाइकिल से.
वैसे लद्दाख जाने का मज़ा जो बाईक से है वो शायद से किसी और चीज़ से होता है. मेरे
कई जानने वाले हैं जो लगभग हर साल लद्दाख जाते हैं. वो भी मुझे अक्सर बोलते हैं चल
यार एक बार तो चलो. पर हाय रे किस्मत! मैं कभी ना जा सका उनके साथ.
सिर्फ
टीवी पर देख देख कर मन को शांत करता हूँ. पर ये कसक मेरे दिल में पिछले कई साल से
साँस ले रही है और हर बार लगता है की कहीं ये आखिरी साँस ना हो. ना जाने कितनी बार
झटके दे दे कर इसको जिंदा किया है. उसके बाद हर बार बोलता हूँ आल इज़ वेल. और अगली
बार के लिए टरका देता हूँ. मेरी इन सारी तमाम परेशानी को शायद कोई सुन रहा था, शायद
कोई अपना!
जब
से मेट्रो चली है और मेरी कार्यस्थल गुडगाँव हुआ है मैंने लद्दाख को मिस करना लगभग
छोर सा दिया है. सुबह ऑफिस जाने की चिंता में रात में सो नहीं पाता, और सुबह
उठते ही फिर से नींद हमला कर देती है. मुझे तो लगता है नींद भी ब्लैक होल से कम
नहीं है जैसे ब्लैक होल में जो जाता है वापस नहीं आता वैसे नींद के साथ है. आप
जितना सो नींद उतनी ही आती है. ये नहीं की चलो 6-7घंटे हो गए तो मत आओ. पर नींद
के साथ ऐसा नहीं है. लगता है जितना सो
उतना कम है.
उसके
बाद घर से निकलने तक सारे काम मल्टीटास्किंग बन के करना पड़ता है. २-२ काम एक साथ.
उसके बाद भागो, मेट्रो को पकड़ने के लिए. आदमी पैदल भी चलता है तो कुछ ना कुछ करता
ही रहता है. उसके बाद संघर्ष करो मेट्रो में चढ़ने के लिए. जैसे लद्दाख की किसी
पहाड़ी पर चढ़ा जाता है. लाइन में लगते लगते मेट्रो में एंट्री के लिए मेट्रो कार्ड
लगाओ तो पता चलता रीचार्ज खतम हो गया, अब फिर भागो बाहर और फिर भाग
कर अंदर आओ.
फिर
भागते भागते प्लेटफार्म पर जाओ और ठीक उसी जगह खड़े हो जहाँ गेट खुलता है और जैसे
ही उतरने वाले उतर जाएँ वैसे ही चढ़ जाओ. वरना सबसे आखिर तक इंतज़ार करो और गेट बंद
होने से पहले थोड़ी सी बची जगह में एडजस्ट करो. और हांफते हांफते मेट्रो के इस सफ़र
का अनद लो क्योंकि मेट्रो में भी लाद्द्ख की तरह oxygen की कमी है.
Photo साभार : http://unpredictableblog.wordpress.com/2011/07/24/thesis-delhi-metro-might-be-a-pn-junction-diode/
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