मैंने भारत के लगभग प्रत्येक कोनो की यात्रा की परन्तु वो क्या कारण थे कि मैं आज तक दक्षिण की यात्रा ना कर सका मुझे आज तक पता नहीं चला. पर दक्षिण यात्रा का सपना अंततः दिसंबर 2005 में पूरा हो गया. और अगर मैं उस बार भी नहीं जा पता तो शायद मेरा दुर्भाग्य ही होता. पर ऐसा हुआ नहीं. इसको संयोग...
मेट्रो में चीन की दीवार बात उन दिनों की है जब हम छोटे हुआ करते थे... उस समय मेरे मामा मुझे बातों बातों में बताया था की दुनिया सिर्फ एक ही चीज़ है जो अंतरिक्ष से भी दिखती है और वो है चीन की दीवार. ये बात सुन कर मानो लगा की क्या कोई दीवार इतनी बड़ी हो सकती है की आसमान से...
बहुत दिनों के बाद कुछ प्रस्तुत कर रहा हूँ, आशा करता हूँ आपको ये रचना पसंद आएगी. चलो उठो फतह करो. हौसलें बुलंद कर सीने को ज्वाला से भर मार्ग तू प्रशस्त कर. चलो,उठो,फतह करो. चेहरे पर मुस्कान लिए भीतर एक तूफ़ान भर ज़ज्बे से विरोधी को परास्त कर. चलो,उठो,फतह करो. हौसलों के पंख खोल औरों से ऊँची उड़न भर हर चुनौती पार कर. पार...
जब दीवार का जिक्र होता है तो पता नहीं क्यों मुझे मेरे गाँव की याद आ जाती
है. मेरे दादा जी के समय की वो दीवार. जो हमे अनायास ही देखती, हमारी हर हरकतों को
ऐसे देखती कि अभी बोल देगी हमारी सारी शरारतें अम्मा को. वो दीवार हम सब भाई बहनों
को कभी कभी इतनी बेबस दिखती कि हम उससे अक्सर अपने कपड़ों से साफ़ कर दिया करते थे,
पर उसके हालत पर कोई असर नहीं होता था.
बरसात में उसके उपर पानी ऐसे जैम जाता मानो जैसे बरसात के बाद गेंहूँ की बालियों पर पानी जमा हो, जैसे पेड़ों की पत्तियों के मुंह पर पानी जमा हो, जैसे किसी गड्ढे में पानी जमा हो. और जब तक कोई उसको न हिलाए वो पानी वहीँ रहता है. वो दीवार भी शायद हमारा ही इंतजार किया करती थी कि हम आयें और उसके उपर पानी की चादर को हाथों से साफ़ करें. और फिर हम उस दीवार के सिराहने खेलने लगते. फिर एक बार जब हम गर्मियों की छुट्टियों में गाँव आये तो हमे वो ख़ुशी न मिली. अब वो बूढ़ी दीवार अपनी जगह नहीं थी. उसकी जगह एक नयी दीवार ने ली थी. और उस पर अब पानी भी नहीं टिकता था.
बरसात में उसके उपर पानी ऐसे जैम जाता मानो जैसे बरसात के बाद गेंहूँ की बालियों पर पानी जमा हो, जैसे पेड़ों की पत्तियों के मुंह पर पानी जमा हो, जैसे किसी गड्ढे में पानी जमा हो. और जब तक कोई उसको न हिलाए वो पानी वहीँ रहता है. वो दीवार भी शायद हमारा ही इंतजार किया करती थी कि हम आयें और उसके उपर पानी की चादर को हाथों से साफ़ करें. और फिर हम उस दीवार के सिराहने खेलने लगते. फिर एक बार जब हम गर्मियों की छुट्टियों में गाँव आये तो हमे वो ख़ुशी न मिली. अब वो बूढ़ी दीवार अपनी जगह नहीं थी. उसकी जगह एक नयी दीवार ने ली थी. और उस पर अब पानी भी नहीं टिकता था.
रंग वो कहते हैं मैं बदनाम हो गया हूँ, उनकी गली में आम हो गया हूँ. मेरा आना भी उन्हें नागवार गुजरता है, उनके दरीचे का पर्दा भी नया लगता है. छत के फूल भी अब मुरझाने लगे हैं, सीढ़ियों पर भी अब जाले लगने लगे हैं. बदल दिया है समय आने जाने का, नज़र मिलने पर भी रंग अब बदलने लगे हैं....
इत्तेफाक मेरी दिल्ली में पहली पोस्टिंग थी. कहते हैं दिल्ली दिलवालों की है. मुझे भी पहले दिन ऐसा ही लगा था जब में ऑफिस पहली बार पंहुचा. ऑफिस के हर आदमी ने मेरा दिल खोल कर स्वागत किया. उनमे से कुछ लोग मेरे ही तरफ के निकले तो, दिल को तस्सली मिली कि चलो कोई तो मिला अपनी तरफ का. सरकारी दफ्तर में...
The Bankster Book Book Review for blogadda The story revolves around different places across the globe .giving the description of various places so apt and true to life. This book takes us from Angola to Cochin to Vienna to Mumbai. Each location introduces different stories with different characters weaving different plots altogether. Connecting these stories and maneuvering with multiple scenarios with various characters spanning different...
मेट्रो में लद्दाख का अनुभव लद्दाख के बारे में मुझे सबसे पहले जो याद आता है वो है बेहतरीन नज़ारा, जो सिर्फ टीवी में देखा है. लद्दाख मुझे शुरू से ही अच्छा लगता है. पर दूर इतना है पूछो मत. आज़ादी से पहले जब आज़ादी के आन्दोलन होते थे तो सबको दिल्ली में प्रदर्शन करने के लिए कहा जाता था. चूँकि तब यातायात...
बरसात की बूँद गालों पर तेरे बरसात का पानी, हवाओं से कांपते होंठ गुलाबी. नशीली आँखों का रंग आसमानी, नाक पर गुस्सा है बेमानी. सिकुड कर तेरा बैठना, जैसे फूल की हो खिलने की तैयारी. हवा के झोके ने भी ठानी, तेरे जुल्फों से करनी थी जैसे उसे मनमानी. बार-बार तेरे गैसुहों का लहराना कर आँखों पर आना, तेरा प्यार से उनको संवारना....
दूर रह कर भी कितने पास हो तुम, मेरी साँस की आस हो तुम. महसूस होता है जेहन तक तू, चाहता हूँ और करू महसूस तुझे. हर लेती साँस के साथ, करता हूँ जब ऑंखें बंद चेहरा नज़र आता है तेरा वो मासूम अदा, अल्हड हंसी, वो जुल्फों का अँधेरा, वो गुलाबी होंठों का नशा. आज भी महसूस करता हूँ तुझे इन हवाओं...
रुको नहीं, थको नहीं, किसी से तुम झुको नहीं. दिक्कतें हज़ार हो, मुश्किलों का पहाड़ हो. बन कर रोशनी तुम, मोड़ दो अँधेरे का मुँह. रुको नहीं, थको नहीं, किसी से तुम झुको नहीं. लोग कहेंगे, कहते रहेंगे, कुछ ना करने वाले सिर्फ बात करेंगे. धार लगा अपनी हिम्मत को, मान से लगा आग सबके अभिमान को. रुको नहीं, थको नहीं, किसी से तुम झुको नहीं. रगों में...
मेरी दिल्ली. कहने को तो ये सबकी है. थोड़ी सी मेरी भी. अब मैं ऐसा कह सकता हूँ क्योंकि दिल्ली अब मेरी यादों में भी बस चुका है. मुझे रहते हुए वैसे तो कई साल हो गए हैं. पर आज भी वो पल याद है जब मेरी तुमसे मुलाकात हुई थी. कोई 7 साल पुरानी 19 जुलाई २००४ की बात है. मैं एक...
मुझे याद नहीं मैंने फ़िल्में देखना कब शुरू किया, हाँ इतना जरुर याद है की देखी बहुत सी फ़िल्में हैं. पहले आज की तरह 24 घंटे का चैनल नहीं हुआ करते थे.एक मात्र देखने का जरिया दूरदर्शन हुआ करता था. जोकि हफ्ते में 2 बार फिल्मे देता था शनिवार और रविवार. पर हम लोगों के पास एक और भी जरिया था वो था...