मेट्रो में मैराथन
जून 15, 2011
ये दिल्ली है मेरी जान ! जानते
हो क्यूँ ? क्योंकि यहां दिल वालों की मंडली रहती है । हर कोई दिल देने और दिल
लेने में लगा हुआ है । कमी है बस तो एक कि टाइम नहीं है किसी के पास और अगर है तो
फिर खूब सारा फिर तक जब तक आप उससे उब
नहीं जाते आप उसे छोड़ नहीं सकते । मगर दिल्ली में सब कुछ तेज दौड़ता है, तेज रफ़्तार
गाड़ी, उसमें बैठी सवारी, बस और तो और मेट्रो भी दौड़ती है बड़ी तेज ।
दिल्ली हमेशा से ही नए-नए बदलाव
का मुरीद है पर दिल्ली में पिछले कुछ सालों में बड़ी तेज़ी से बदलाव आया है । जब
कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में होने का हुआ तो बहुत के समझ में आ गया की दिल्ली अब सच
में बदलेगी । नई नई बसें, स्टेडियम, गमले, फूल और मिटटी तक बदल दी गयी दिल्ली की
और देखते देखते दिल्ली रहने वालों के लिए कहीं स्वर्ग तो कहीं नरक और बाहर वालों
के लिए एक सपना हो गयी । चीजें महंगी होती
गयी और लाइफ सस्ती । जिन्हें कमाना था वो कमा गए जो बच गए वो बचा खुचा समेटते हुए
निकल गए । रही सही कसर या यूँ कहें की इज्ज़त बचायी तो भारतीय खिलाड़ियों ने
जिन्होंने खूब सारे ईनाम जीते और देश का नाम रोशन किया और मुझे लगता है उसके बाद
दिल्ली वालों को खेल की हवा लग गयी है । पूरी दिल्ली खेलनुमा हो गयी ।
लोगों ने खेलों में भी बढ़ चढ़
कर हिस्सा लिया और दिखा दिया की दिल्ली वालों का दिल प्यार के लिए ही नहीं ही नहीं मैच के लिए भी बड़ा है । खैर खेल खत्म
हुआ और शुरू हुआ उसके बाद खेल के बाद का खेल ।
आज कल खेल में एक नया ट्रेंड
शुरू हुआ है वो है मैराथन का । जब देखो तब कोई ना कोई मैराथन करवाता है और लोग
उसमें शामिल होते हैं सन्डे के सन्डे और दौड की दौड़ हो जाती है और कोई गंभीरता से
दौड़ गया तो ईनाम अलग से । उसमें उम्र दराज़ से ले कर बच्चे तक शामिल होते हैं
। मैराथन को एक शानदार सन्डे बनाते है पर
ये साल में कभी या एक साथ कई जगह पर होती है, एक दिन छोड़ कार एक दिन. मेट्रो में
भी ऐसा ही खेल होता है छोटी मैराथन के नाम से हर रोज । ये अलग बात है की कोई उस पर
गौर नहीं करता ।
जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ मेट्रो की जहां रोज छोटी मैराथन
होती है । सच मानिए अगर आप मेट्रो में १०० मीटर की रेस का आयोजन करेंगे तो कोई
भारतीय ही जीतेगा । बस शर्त ये है की रेस मेट्रो ट्रेन के गेट खुलते ही चालू होगी
और मेट्रो के बाहर निकलने वाले गेट तक खत्म होनी है । क्योंकि दिल्ली के बहुत से
लोग बाथरूम में १५ मिनट ज्यादा लगा सकते हैं पर मेट्रो के गेट खुलने के बाद वो १०
सेकंड भी मेट्रो स्टेशन पर बिताना पसंद नहीं करते । और गेट खुलते ही ऐसे भागते हैं
जैसे गेट खुलने पर रेस के घोड़े भागते हैं । पर जैसे ही वो मेट्रो स्टेशन का गेट
पार करते हैं वो अपनी सारी फुर्ती फिर मेट्रो की लिफ्ट को पकड़ने में लगा देते हैं ।
जैसे मैराथन खत्म होने के ईनाम के रूप में उन्हें मिला हो । मेट्रो की लिफ्ट में चढ़ने
का मौका इसे क्यों पाना । मुझे ये समझ में नहीं आता कि लिफ्ट का प्रयोग जवान लोग
क्यों करते हैं. मैंने कई उम्रदराज लोगों को देखा है कि वो सीढ़ियों का प्रयोग करते
हैं. कभी कभी तो पूरी लिफ्ट हट्टे कट्टे पुरुष और महिलाओं से भरी होती है और उम्रदराज
लोग बाहर खड़े रहते हैं पर मजाल है कोई लिफ्ट से उतरे. क्योंकि उन्होंने १०० मीटर
कि मैराथन में ईनाम जो जीता है लिफ्ट से जाने का लाइसेंस ।
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