मेरे ऑफिस से घर और घर से ऑफिस जाने की यात्रा की कहानियाँ और दैनिक जीवन के कुछ लम्हों के साथ दिल से निकलने वाले कुछ अनछुए पहलू जिन्हें लिख कर मुझे अच्छा लगता है. मुझे आशा है कि आपको पढ़ कर भी अच्छा लगेगा.
बहुत पहले की एक कहावत है की “मन चंगा तो कठौती में गंगा” । तब जब इसे कहा गया था तब शायद या तो यमुना का अस्तिव नहीं रहा होगा या फिर शायद उसमे कोई नहाता नहीं होगा । या एक कारण और होगा वो है की वो पाप नहीं धोती होगी । पर आज तो क्या गंगा क्या यमुना दोनों ही सिर्फ कपड़े धोने के काम में लायी जाती है । खास कर बड़े बड़े शहरों में चाहे वो कानपुर हो दिल्ली । उनकी हालत दोनों जगह बिगड़ी है ।
सरकार ने दोनों को साफ़ करने के नाम पर न जाने कितने करोड़ो रुपये पानी के नाम पे पानी की तरह बहा दिया । और वो पैसे अपनी की तरह बहते ही रहे पर फिर भी गंगा मैली यमुना मैली की मैली ही रही । कितने स्वयंसेवकों न इसी बहाने अपने वारेन्यारे कर लिए । शायद अब वो उस गंगा किनारे भी नहीं जाते होंगे जहाँ से उन्होंने शुरुवात की होगी । बस सफाई के नाम पर करोड़ो अंदर करने में खुद मैले हो गए पर गंगा साफ़ न हुई ।
कभी कभी लगता है की न जाने क्या सोच कर रीती रिवाज़ बनाये गए होंगे की घर की पूजा का सारा सामान अगर आप गंगा में डालेंगे तो पुण्य मिलेगा उनका मतलब शायद पोलिथिन से नहीं होगा । क्योंकि उस समय ये सुविधा उपलब्ध नहीं रही होगी अगर होती तो आज के नियम भी कुछ और होते । तब शायद गंगा का नाम भागीरथ हो रहता और वो आज इतनी पवित्र नहीं मणि जाती और न ही यमुना । हालाँकि गंगा को सबसे सबसे पवित्र नदी मन जाता है और पुरे भारत वर्ष में सबसे ज्यादा मान मिलता है । गंगा पर ना जाने कितनी फ़िल्में बनी हिट हुई और लाखों कमाएँ । पर गंगा को क्या मिला तारीख पर तारीख । हर साल गंगा को सफाई के लिए नई तारीखे मिलती है चाहे वो कोर्ट हो या मंत्रीमंडल या फिर श्रद्धालुओं के मन में गंगा सफाई के प्रति पूर्ण आस । एक बार जोश के साथ गंगा की कुछ घाटों की सफाई होती है साथ में एक गंगा आरती का गाना बनता है, योग बाबा थोडा भाषण देते हैं ताली बजती है थोडा साफ़ होता है 2-3 तक अखबार में सुर्ख्रियाँ बनती है और फिर वही पुनः मुश्को भवः वाली बात होती है । इतना कुछ होता है पर गंगा या यमुना साफ़ नहीं होती साफ़ होती है तो बस सरकार के जेब से मुद्रा, अखबारों से स्याही और व्यर्थ में किया गया श्रम । जिसके लिए खुद गंगा और यमुना अगर बोलती तो वो भी मना कर देती ।
बात ये है की एक और कहावत कही गई है की “दान की शुरुवात घर से की जाती है” तो मेरा मानना है की गंगा और यमुना की सफाई भी घर से शुरु करें । कम से कम पोलिथिन तो नदिओं या नालों में न फेंके और साथ ही घर में पेड़ पढ़ो की संख्या बढ़ाये या नये लगाये जिससे घर में निकलने वाला निर्वाल (पूजा पर चढ़े फूल ) उनमे डाले जा सके जिससे पेड़ के साथ साथ फूलों को भी समुचित विकास मिलेगा और हमें बेहतर घर । साथ ही मेरा पूजा के सामान बनाने वालों से अनुरोध है की सामानों पर भगवानों के चित्रों से बचे जिससे पूजा के बाद उन्हें कंही भी रखा और किसी को भी दिया जा सके । कुछ इसी तरह के नये ख्यालों से सरकार से द्वारा दिया गया हमारा ही धन गंगा की सफाई के साथ साथ न जाने कितने सुखाग्रस्त जगहों की प्यास बुझा सकता है । मैं अपने बस की यात्रा के दौरान देखता हूँ की पुल पर से लोग न जाने क्या क्या फेकते रहते है जिनकी मदद के लिए बकायदा सरकार ने पुल की रेलिंग पर बने जालों को
कटवा रखा है जिससे सरकार के लिए किसी तरह की धार्मिक परेशानी न हो ।
विशेष : उपर जो भी लिखा है वो व्यक्तिगत राय और सुझाव है । पाठकों का सहयोग सम्मानीय है ।
आज कल कुछ दिनों से दिन बड़े मासूमियत से गुज़र जाते हैं । पता की नहीं चलता की कब दिन गुज़रेगे और मुझे ऑफिस से घर जाना है और जब घर पर रहता हूँ पता ही चलता की कब रात कट गई, सुबह हुई और फिर ऑफिस जाने का मन नहीं करता है । पर प्रकृति का जो नियम है उसको आप कब तक पीठ दिखायेंगे कभी तो सामने आने होगा उसके यही सोच कर मैं रोज उसका सामना करता हूँ और देर से ही सही पर ऑफिस जाने की रोज वही तैयारी करता हूँ ।
इन सबके बीच मैंने एक चीज़ देखी की जब आपका मन किसी विशेष काम या जगह में नहीं लगता तो हर कोई उसी के बारे में ज़िक्र करता है । कभी-कभी कुछ लोग अनजाने में करते है, कभी कुछ जानबूझ कर करते है । पर अगर आप उसी चीज़ को आनंद में लेना शुरू कर दें तो सारी तरह की चर्चा खत्म हो जाती है ।
खैर मेरे बस का सफर जारी है और अब कॉमन वेल्थ भी खत्म हो गए हैं । पर उसको कराने वालों के पीछे अब खेल का खेल हाथ धो कर पीछे पड़ गया है । पर एक खेल में जहाँ कईओं के मुह बीप-बीप से बाहर गए वन्ही बहुत से लोगों को ब्लू लाइन बसों से बहुत राहत मिली । शीला जी ने भी दिल्लीवासियों को धन्यवाद बाद दिया की कॉमन वेल्थ में सहयोग देने के लिए शायद ब्लू लाइन बसों को पूरी तरह हटा लेना उसी का उपहार है । शीला जी ने सोचा की दिल्ली वाले भी याद करेंगे की बड़े दिल वाले मुख्यमंत्री ने ब्लू लाइन को हटा दिया या फिर इसके पीछे खेल पैसों का है जो दिल्ली के सरकारी बस ने खेलों के दौरान कमाए । पर कोई नहीं हो सकता है ब्लू लाइन बंद होने से रोज़ ना जाने कितने मोबाइल चोरी होने से बचे, ना जाने कितनी महिलाओं को रहत मिली होगी जो रोजाना मज़बूरी में ब्लू लाइन बस में न जाने क्या क्या सहती हैं ।
आज कल लड़कीयों मैं न जाने क्या फैशन का तडका लगा गया है ये सब पश्चिमी हवा है है आधुनिकता की नई परिभाषा । टीवी में जो कपडे आये नहीं वो अगले दिन आप किसी न किसी लड़की पहने देख सकते हैं । मेरे ख्याल से उनको भी अच्छा लगता है जब वो नये कपडे पहन कर निकले और लड़के पलट-पलट कर देंखे । ये उनकी सोच है और लड़के तो होते ही इस मामले में बेरोजगार,उनको लागता है कोई उनको ऐसा ही कोई रोजगार दे दे । चाहे उनको तनख्वाह कम ही क्यों न मिले वो काम करने को तैयार हो जायेंगे ।
हुआ कुछ यूँ की मैं स्टैंड पर अपनी बस के इंतज़ार में खड़ा था । सामने एक बड़ी शालीन से युवती खड़ी थी जींस लगता था जैसे खाल से साथ सील दी गई हो । तभी सामने से एक स्कूटी आ कर रुकी, शायद वो उसकी कोई दोस्त होगी । दोनों साथ जाने की तैयारी करने लगी मुझे देख कर अच्छा लगा की दोनों हैलमेट पहन कर जाने की तैयारी में थी पर उसके बाद जो हुआ वो मेरे पुरे दिन की खुराक थी । ड्राईवर सीट वाली तो आराम से बैठ गई पर पिछली सीट पर जिसे बैठना था वो उस पर पहुच ही नहीं पा रही थी क्योंकि उनकी जींस इतनी टाईट थी की उनसे उस पर बैठाजी नहीं जा रहा था । उन्होंने सभी तरीकों से प्रयास किये पर वही ढाक के तीन पात । अब तो सबके सब देखने वालों के लिए ये एक खेल हो गया था । कुछ तो उनकी मदद करने भी पहुँच गए । कम से कम 15 मिनट की जद्दोजेहद के बाद ड्राईवर हो हटा कर पहले खुद बैठी फिर ड्राईवर वाली मैडम बैठी और साथ में २ लोंगो ने स्कूटी की संभाले रखा ।
मुझे लगा की इस तरह जींस तब इतनी परेशानी वाली है तब तो मैडम को दैनिक जीवन में न जाने क्या क्या देखन पड़ा होगा । पर बस स्टैंड जो हुआ उससे में उन दोनों नहीं भूल पाउँगा ।
जब में छोटा था तो एक बात मेरे मामा ने एक बात कही थी “Every Place has a thing and every thing has a place” ये पूरी तरह से कितनी सही है ये नहीं पता । इस कहावत को याद आने का एक कारण है और उसे कहे जाने के कई । जब मामा ने कहा था तब हम छोटे थे अपना कोई सामान समुचित स्थान पर नहीं रखते थे, पूरे दिन तो नहीं हाँ आधे दिन तो मस्ती जरूर करते थे । और घर वाले आधे दिन सामान को ठीक करने में गुजार देते थे । तब मम्मी की डाट में भी बाद अमाज़ा आता था तो कभी कभी बेलन के प्यार फ्री मिलते थे । और हमारी ही रोटी बनती थी । आंसुओं के साथ रोटी भी नमकीन लगती थी । फिर कभी मामा का प्यार और साथ में माँ का दुलार तो था ही । वो कहावत तब सुनी और आंसुओं से साथ यादों की तरह बह गई ।
इस कहावत का दूसरा पहलु ये है आज हम बड़े हो गए और बस में चलते है जहाँ भिन्न भिन्न प्रजाति के लोग भी आपके साथ चलते है और उनकी अदा भी जुदा होती है । ऐसे ही मुझे यदा कद मिलते रहते हैं अब ३-४ पुरानी बात है है में सुबह घर से बस के लिए निकला शायद मुझे थोड़ी देर हो गई थी । और में झक मार के सरकारी बस में ही चढ़ गया । ड्राईवर कोई 35 से ज्यादा उम्र का होगा और अनुबंधित था । ये उसकी चल से लगता था । मुझे एक बात समझ में नहीं आती की जो लॉन्ग सरकारी नहीं होते है वो सरकारी काम काज को बहुत बीप बीप करते है पर जब उसका हिस्सा बनते हैं तो वो भी वही करते हैं ऐसा मुझे उस ड्राईवर को देख कर लगा । वो इसके पहले शर्तिया किसी निजी कंपनी में ड्राईवर होगा पर वहां ऐसी गाड़ी नहीं चलता होगा इसका मुझे विश्वास है । पूरी सड़क खाली होने के बाद भी वो गति पे कभी भी गति नहीं दे सका । और तो और उसके कुछ अजीब नियम थे । मसलन गेट खाली रहे , शीशा के आगे किसी का बाल भी ना आये , डैशबोर्ड खाली रहे । उसको देख कर मुझे अपने मामा वाली कहावत याद आ आ गयी । बस की भीढ़ को नहीं देख रहा था, वो सिर्फ खुद को देख रहा था । मुझे लगता है अगर इसी तरह वो अगर निजी कंपनी में होता तो भी उसका यही व्यवहार होता या वो सवारिओं के साथ तन्मंता के साथ गाड़ी को चलाता । या ये सब उसके सरकारी विभाग से जुड़ने का नतीजा था । क्या पद आपके स्वाभाव या सोचने के लिए काफी है या आप कभी उससे उपर भी जा सकते हैं । क्या यही वो सोच है जो सरकारी और निजी कर्मचारी को प्रथक करती है । उसके काम करने का तरीका । और क्या वो जब तक सरकारी अनुबंध पर है वो इसी तरह से गाड़ी चलाएगा और जब वो निजी कंपनी में जायेगा तो पुनः पहले की भांति रफ़्तार से चलेगा । यही ख्याल मेरे मन में लगातार अंत तक रहा क्योंकि उस दिन उस ड्राईवर के इस तल्ख़ रवैये केकारण कई लोगों की बस छूटी । और न जाने कितने लोग ऑफिस जाने से महरूम रह गए होंगे । शायद किसी का इससे ज्यादा नुक्सान हुआ होगा ।
कॉमनवेल्थ गेम्स से सरकार को उतना फायदा नहीं मिला होगा जितना कष्ट आम जनता को हुआ होगाबसों की हालत खराब है यात्री बेहाल हैं और सरकार लाइलाज है । जैसे जैसे कॉमनवेल्थ गेम्स की तारिख पास आ रही है वैसे वैसे आम लोंगो की दिक्कत बढती जा रही है । हालाँकि इसके दूरगामी परिणाम अच्छे होंगे पर अभी तो लंका लगी हुई है ना । बाद का क्या हम हो न हो दिल्ली सवर गई तो क्या, हमें तो कष्ट हो रहा है ना । ऐसा कई लोग बार बार लगातार सोचते हैं न जाने दिन में कई बार पर कर कुछ नहीं पाते ।
कॉमनवेल्थ गेम्स के कारण ब्लू लाइन बसों को बंद करा दिया है और सरकारी बस सरकार की तरह सुस्त और फुस्स है ।कब चले और कब रुके कुछ पता नहीं। जो बड़ी बस आयीं है वो भर जाने पर इस तरह से चलती है की पूछो मत । उनमे जगह कम और भोकाल ज्यादा है । खैर उनके इंतज़ार में न जाने कितनी देर खड़ा होता हूँ स्टैंड पर, पर वो नहीं आती बस उसकी आस आती है और आस पे साँस चलती है और साँस को थाम कर में किसी भी बस में चढ़ जाता हूँ जो मेरे गंतव्य स्थल पर जाती हैं और दिन की शुरुवात बस में धक्के खाने के साथ करता हूँ ।
और आज कल अंत भी उसी के साथ करता हूँक्योंकि वापसी में बस तो नदारद रहती है । बस स्टैंड पर भीढ़ इतनी की ना जाने कहाँ से 5-6 खोमचे वाले रोज कुछ न कुछ बेचते नज़र आते हैं और सच मानिये स्टैंड पर खड़े लोगों से ज्यादा भूखे लोग मैंने कभी नहीं देखे । खोमचे वालों का सब कुछ खत्म कर देते हैं । हम लोगो को यात्रा के नाम पर बहुत भूख लगती है । मैंने देखा है कितनी भी महगाई आये पर खाने के सामान में कोई कमी नहीं होती जो चीज़ जितनी महगी होती है वो उतनी ज्यादा बिकती है और खाते हुए हम सरकार की न जाने कितनी पुश्ते गिन जाते हैं ।
रात में ऑफिस से घर जाते वक्त किसी तरह घर जाने की जिद होती है पर इसमें कोई कोई हमसे भी ज्यादा जिद्दी होते हैं । मसलन कल एक जनाब मिले वो शाम के 6 बजे से एक विशेष नंबर की बस के इंतज़ार में खड़े थे और जब में स्टैंड पर पंहुचा तो 8 बज चुके थे । पर वो जनाब किसी और बस में जाने के बजाए उसी के इंतज़ार में थे उनके बस का नंबर और मेरे बस का नंबर एक ही था तो मैं हालत समझ गया और अपनी यात्रा टुकड़ों में करने की सोची और घर जाने के सीधे क्रम को 3 हिस्सों में बाँट दिया ।
पहला हिस्सा 4 किलोमीटर का था जो कम देर चला और बस से उतर कर दूसरे क्रम की बस में चढ़ गया । बस में सवारी इस कदर भरी हुई थी जैसे बोरी में चीनी भर के हिला दिया गया हो और फिर से चीनी डालने की तैयारी हो बस जब स्टॉप पर रूकती थी तो हर कोई यही मनाता था की बहुत लोग उतरे और कोई न चढ़े । बस फिर से चली पर रुक गई देखा एक सामान्य कदकाठी की लड़की एक लड़के को बेतहाशा रूप से मार रही थी । वो दोनों उसी बस से उतरे थे जिसमे में था । मुझे लड़की की फुर्ती देख कर बड़ा अचम्भा हुआ उसने कोई 5 सेकेंड में 10 तमाचे मार दिए होंगे जिसकी मुझे क्या उस लड़के को भी उम्मीद नहीं होगी उसके बाद तो हीरो की लिस्ट बड़ी लंबी होती गई सब उसकी मदद में हीरो बनने के लिए आगे आ गए । लोगो का कहना था की लड़की को टक्कर लग गई थी लड़के से, बेचारा बिना बात के कॉमनवेल्थ गेम्स का शिकार हो गया और बस आगे बढ़ गई ।
बस में भीड़ और विज्ञापन का असर साथ में कॉमन वेल्थ फ्री
आज कल जिधर देखो खुदा ही खुदा है, मैं दिल्ली के रास्तों की बात कर रहा हूँ । आप जिधर देख लो हर तरफ खुदा है और उसमे पानी भरा हुआ है और साथ में वो मच्छर प्रजनन स्थल बने हैं । और उन्हें मीडिया बड़ी ही तन्मंता के साथ दिखा रहा है । मैं भी कभी कभी मान बहलाने के लिए इंडिया टीवी देख लेता हूँ और मीडिया की हरकतों पर मुस्कुरा लेता हूँ । पर क्या करे अगर, अगर क्या इतना पानी है की मगर भी रह जाये तो किसी को पता नहीं चलेगा । कोई भी दिल्ली वासी का पेट तब तक नहीं भरता होगा जब तक वो कॉमन वेल्थ वालों के खानदान को अपनी जवाब पर ना लाता हो । घर का पानी ना आये तो कॉमन वेल्थ की बीप बीप, पंचर भी होता है तो मैं कईओं को कॉमन वेल्थ की बीप बीप करते देखा है । अरे भाई उसमे वेल्थ वालों की क्या गलती वो तो बस अपना काम कर रहे हैं । आजकल हर जगह कॉमन वेल्थ की ही चर्चा है । मेरा एक रिश्तेदार भी इसका हिस्सा है और वो बड़ा प्रसन्न है क्योंकि उसे उपर से नीचे तक रीबोक के बस्त्रों से सजाया गया है ।
मेरा भी पाला कॉमन वेल्थ से होने वाली परेशानिओं से पड़ा है क्योंकि में बस का नियमित सवारी हूँ और कॉमन वेल्थ की वजह से मुझे भी या मेरे जैसे कई नियमित लोगों को परेशानी हुई है । मसलन कभी एक नया रूट बना देना कभी किसी नए रास्ते पे ले जाना । देर से ऑफिस पहुचों तो रोज नई बात बताने से ऑफिस वालों का भी शक होना की बालक रोज लेट होता है और कहानी भी नई बनाता है या तो ये बहुत क्रिएटिव है या बहुत ही बड़ा कहानीकार । पर सच तो ये है की सच वही जनता है जो बस का सफर करते हैं, हमारी पीड़ा वो क्या जाने जो खुद के वाहन या कार से आते हैं ।
वो तो जहाँ खड़े हो जाये वंही पर एफम ऑन और फोन पे लगे बतियाने । पर बस वाले क्या करे एक तो बस में भीड़ उस पर से खड़े खड़े सफर और अगर बस में आप अपने पैसे खर्च कर के भी बात करेंगे तो भी कई लोग टोक देते हैं की भाई साहब बस में तो अराम करने दिया करो फिर तो दिन भर फोन पर ही बात करना है । ये हैं बस के हालात । कुछ लड़किओं को मैंने देखा है उनके मुंह में साईंलेंसर लगा होता है कितना भी ध्यान लगा लीजिए मजाल की आप उनकी बात सुन सके ।
अब कल की ही बात है सुबह का समय था हर कोई भागने में, और बस पकड़ने में लगा हुआ था । मैं भी भीढ़ का एक हिस्सा था । बरसात का ये किस्सा था । जब से बस में फोन चोरी हुआ तब से ब्लूलाइन की सवारी से बचता हूँ, थोड़ा अराम से बस पकड़ता हूँ । एक सरकारी गाडी आई वो भी पूरी ठसाठस भरी हुई । किसी तरह उसकी बालकॉनी वाली सीट ( ड्राईवर के बगल वाली क्योंकि यही वो स्थान है जिसे पूरी बस दिखाई देती है तभी में इसे बालकॉनी वाली सीट बोलता हूँ ) पर जगह मिली । और मैं ड्राईवर साब से बाते करता हुआ सफर को अंजाम देने लगा । अभी बस अपनी रफ़्तार पर थी की अचानक किसी महिला के शोर की आवाज़ आई, आवाज़ का जब ठीक से अध्ययन किया तो पता चला की कोई नवयुवती होगी । उसके साथ उसका कोई पुरुष मित्र भी था । उसके बाद तो अगले १५ मिनट तक सिर्फ हो हल्ला ही होता रहा बात क्या थी पल्ले ही नहीं पड़ रही थी । हम भी ड्राईवर साब के साथ मगन थे । एक जनाब जब पीछे से आगे तो मैं बड़े प्रेम से पूछा क्या मैटर था, तो जनाब बोले भाईसाब बस में इतनी भीढ़ है गलती से किसी ने एक नवयुवती को छू दिया होगा तो उस पर उनके पुरुष मित्र तो ताव आ गया । तो पूरा मुद्दा मेरे समझ में आ गया । वैसे भी आज कल रेडियो और टीवी में नया विज्ञापन बड़ा चल रहा है की “वो प्यार ही क्या जो आपकी रक्षा ना कर सके – गुनाहों का देवता” । चलो कम से कम विज्ञापन का असर इतनी तेज़ी से होता है ये मैंने बहुत दिनों के बाद देखा था । मैं भी अपने स्टॉप से ऑफिस के लिए निकाल पड़ा ।
आज कुछ लिखने का नहीं बल्कि गुनगुनाने का मन किया तो सहसा ही पता नहीं कहाँ से चंद्रशेखर आज़ाद याद आ गए और उनपर मैंने कुछ पंक्तियाँ लिखी है उनको आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ आशा है आपको पसंद आएगी
हमारा उद्देश्य हिंदी सम्बन्धी लेखो को और आगे ला जाना है और साथ में हिंदी साहित्य कों एक नया मुकाम देने का है।
उनका उद्देश्य हिंदी में अधिक से अधिक साहित्य कों बढ़ावा देना है और साथ में अधिक से अधिक भारत में हिंदी अनुवाद कों भी आगे ले जाना है जिससे वो भविष्य में इंडिया में जॉब के अच्छे अवसर प्रदान कर सके ।
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जिस कंपनी के साथ मैं जुड़ा हूँ वो यू.एस.ए में अनुवाद के क्षेत्र में है और भारत कों अपने प्रभावी देशो में देखती है। ये गठबंधन हम दोनों और हम सबके लिए अच्छा साबित होगा। ऐसा मुझे विश्वास है।
मैं आपके भेजे हुए लेख से शुरुवात करना चाहता हूँ और लेख के इंतज़ार में हूँ
लेख क विषय हो सकते है - अनुवाद , भाषा के सम्बन्धी , भाषा , भाषा रूप, अनुवाद का व्यापारिक महत्व
लेख भेजने के लिए आओ मुझे ईमेल कर सकते है csahab At ymail.com
मुझे बस में यात्रा करते हुए कोई 2 दशक से थोड़ा कम ही हुआ होगा बस इतने सालों को ब्लॉग के जरिये समेट पाना थोड़ा मुश्किल काम है पर में इसे लगातार लिखने का प्रयास करता हूँ ताकि धीरे धीरे ये इतने साल महीनो में बदल जाये और मेरी आदत लग जाये । ब्लॉग लिखेने की शुरुवात एक मजाक मजाक में हुई थी पर अब ये थोड़ी थोड़ी आदत में बदल गयी है । अब ब्लॉग लिखें में मज़ा आता है और शब्दों का विस्तार भी होता है । जिससे मुझे लगातार लेखन में मदद मिलती है । कुछ हाफ़ पतलून वाले मित्र पढ़ भी लेते है और थोड़े अनजान कमेन्ट भी कर देते है । जब कोई ब्लॉग पर कुछ लिखता है तो बड़ा मज़ा आता है और जब कोई मेरे ब्लॉग पर कुछ टिप्पणी करता है मुझे आगे बढ़ने को प्रेरित करता है जिससे मैं थोडा और अच्छा लिखू ।
बस के इतने सफर में मैंने बहुत कुछ देखा और बहुत कुछ लिखा । आज जो लिखूंगा वो थोडा हास्यप्रद और थोडा गुदगुदाने वाला होगा । कभी आपने “चोर पे मोर” वाली कहावत सुनी है अगर नहीं सुनी तो आज सुन भी लीजिए और पढ़ भी लीजिए । बात शनिवार की है जगह मेरे घर के पाससस तो नहीं हाँ उस स्टैंड की जरूर है जहाँ से में रोज बस पकड़ता हूँ । मेरे पास 2004 मॉडल का नोकिया 1112 फोन था जिसपे मेरे सारे घरवालों की निगाह थी क्योंकि मेरा फोन मेरी तरह बेशर्म था पिछले 4 सालों से ना खराब हुआ था ना किसी ने उसे चोरी करने का साहस किया तो उसे भी खुद पे बड़ा घमंड था और साथ में मुझे भी था क्योंकि शायद ही किसी के पास कोई मोबाइल इतने समय तक चला हो । उसे रखने का एक कारण और थाउससे जुड़ी यादें । जिन्हें मैं बड़ी ही नजाकत से सम्भाल कर रखे हुए था उस फोन ने हर सुख में और हर दुःख में मेरा साथ दिया था । न जाने कितनी बार किसी के हाथ में जाने के बाद भीनी सी खुशबू ले कर वापस आया था वो फोन(बैज्ञानिक उसे बैक्टीरिया बोलते हैं ) । सच कहू तो मुझे ये याद नहीं की वो फोन मेरे पास कैसे और किस कारण से आया था । पर वो फोन मेरे बहुत करीब था । बहराल रोज की तरह मैं बस का इंतज़ार कर रहा था । उस दिन में ऑफिस जाने में लेट बहुत लेट था क्योंकि शनिवार था और शुक्र की रात में 1 बजे तक काम हुआ थ ऑफिस में तो देर से जाने का हकदार था । आज मुझे नयी बस से जाना था क्योंकि उस रोज मेरी रोज वाली बस का समय नहीं था । पता नहीं क्यों बस में आज भीड़ थी पर जब अंदर चढा तप पता चल की बस के गेट को 2-3 लोगों अजीब तरह से घेर रखा है ना कोई आगे जा पा रहा है ना पीछे । तभी मुझे शक हुआ और मैंने अपना मोबाइल चेक किया । जेब में अपने मोबाइल को महसूस कर के बहुत अच्छा लगा पर मेरा विश्वास भी भी दूर नहीं हुआ था पर पीछे से आई भीढ़ ने मुझे जबरन आगे आने पे मजबूर कर दिया और मैं आगे बढ़ गया । पर मेरा ध्यान मोबाइल से हट गया । यंही वो गलती थी जो मुझे नहीं करनी थी पर क्या करता । जो होना था वो हो गया । जेबकतरों के ग्रुप ने मेरा मोबाइल निकाल लिया था । और अब तक मुझे पता नहीं था चूँकि बस में भीड़ थी तो मेरा ध्यान भी गया । पर चोरों ने काम लगा दिया था । जब बस 2 स्टॉप पार कर गयी तो मुझे मोबाइल के चोरी होने का अहसास हुआ । फिर जो होना था वो हो चुका था मेरी यादों का उड़नखटोला उड़ चुका था । अब मुझे कभी कभी बड़ा दुःख हो तो कभी संतोष क्योंकि में मुझे थोड़ी खुशी भी थी थोडा गम भी । खुशी इस बात की थी की मैं अब नया फोन खरीदूंगा और गम इस बात का की आखिरकार मेरी यादें मुझसे जुदा हो गयी जिन्हें मैंने बड़ी जतन से संभल कर रखा था । बस से उतर कर मैंने सबसे पहले पुलिस को सूचित किया । और नए मोबाइल की खोज में लग गया । अभी भी मेरा विश्वास है की चोर उस बस को दुबारा शिकार जरूर बनायेंगे ।अब कोई कैमरा वाला फोन लूँगा ताकि उन चोरों की पिक्चर ले कर पोस्ट कर सकू ताकि बाकी लोग भी सावधान हो सके । नोकिया का x2 फोन अच्छा है उसके आने के इंतज़ार में हूँ ।
आप कभी कभी चाह कर भी कुछ नहीं लिख सकते क्योंकी आपका मन नहीं लगता है । कुछ करने में बहुत कुछ सितम सेहना है । इतने दिनों से ब्लॉग से दूर हूँ पर सच मानिये मन से नहीं तन से मजबूर हूँ । दिल हमेशा सही कहता है ये हर शायर कहता है । वैज्ञानिक दिल छोड कर दिमाग की बात मानने को कहता है । पर हमारे के पास दोनों रहता है । वक्त के साथ दोनों की बात मानते है और दिल बच्चा है कह कर दिल और दिमाग को शांत करते है ।
बात पिछले रविवार की है बहुत दिनों के बाद बाइक की सवारी लेने का मौका लगा क्योंकि उस दिन रविवार था । पर अकेले जाना का सुख हमें नहीं प्राप्त नहीं था नाना जी साथ मेरे साथ था । वर्ष उनके ८० है शुद्ध दही की बनी लस्सी है । चम्मच से खाने जितने गाढ़े हैं तभी तो आज भी सबके प्यारे हैं । उनको ले कर कम से कम २०० किलोमीटर की यात्रा करनी थी । वो भी बस दिल्ली के अंदर करनी थी । माथा मेरा सुबह से खराब था थोड़े रास्तों से में अनजान था । मैंने भी हेलमेट सर में लगाया एक कनटोपा नाना जी को भी थमाया । नाना जी देख कर चौके, मैं कहा पहनो नहीं तो किसी और को पकड़ो । फिर दोनों का काफिला चल पड़ा हर गड्ढे के बाद नाना के मुह से मारा गया राम फूट पड़ा । कॉमन वेल्थ के चक्कर में नाना जी का हेल्थ डोल गया पूरा बुढा शरीर झोल गया । हमने अपनी यात्रा फिर भी ना रोकी और काफिला फिर भी चलता गया । रास्ते में कुछ अजीब अजीब प्राणी से मुलाकात हुई । हालाँकि उनसे मुलाकात २० सेकंड से ज्यादा नहीं थी । पर वो कुछ दिल और दिमाग में छाप छोड गए । मैंने एक ठेठ हरयाणवी से पता पूछा उसने साथ में ४-५ और बता दिए- तू ऐसा कर सिद्धे चला जा आगे से मोड पे शर्मा जी मकान अयेगा उसे बाद अपने भतीजे का फिर एक का और आयेगा तू उसके बाद की रोड पे मुड जाना और फिर किसी से पूछ लेना । मुझे इतना गुस्सा आया गुस्सा पी के मैंने सारा गुस्सा गति बढ़ा कर निकाला । आगे एक रिक्शे वाले से पता पूछने का ख्याल दिल में आया बाद में उस ख्याल पर बहुत से जातिवाचक शब्दों से उसका अंत करवाया- भैया ये फलां पता बताओगे । उसके अंदर कस्टो मुखर्जी का साया पाया । ये पता तो मुझे मालूम है क्या तुमको यंही जाना है पर क्यों जाना है क्या बाइक से जाना है तुम दोनों को जाना है । उसके आगे सुनने से पहले में कुछ और नहीं सुन पाया और गाड़ी को आगे बढाया । जिनके वहाँ जाना था उन्ही को फोन मिलाया तब जा कर सही पता पाया । उनके मिलने के बाद मैं कंही और जाने का प्लान बनाया पर नाना जी का प्लान पहले से बना था जो उन्होंने मुझे सुनाया । मैंने भी आज खुद को पक्का भक्त बनने का ख्याब सजाया और नाना जी को बैठा कर फिर वाहन को द्रुत गति से दौड़ाया । आगे फिर रास्ता पूछने का दुस्साहस दोहराया ।
बाद में फिर यही सोचा की मुझे आज ऐसा ख्याल फिर क्यों आया । जनाब को किसी चीज़ की जल्दी नहीं थी उल्टे हमें राय देने में अपना समय बिताया । आपका जहाँ जाना है वो जगह यहाँ से दूर है एक बार और सोच लीजिए । मैंने कहा अब निकल गया हू तो जाना ही है कितने किलोमीटर होगी । २ मिनट मंथन से बाद ५ किलोमीटर मुह से निकला और जाने का सबसे लम्बा रास्ता बताया । गंतव्य स्थल पर जैसे तैसे पंहुचा पर उन सबका आभार व्यक्त करने से डरता हूँ आज बस इतना ही लिखता हूँ ।
क्या सोचू क्या लिखू कभी कभी खुद से यही पूछता हूँ । खुद से कभी कभी । जवाब वही आता है जो लिखें वाला हूँ “चुप चाप जो मन में आये लिखे जायदा पका मत’ ।
सच में यही वो ख्याल है जब में थोडा ज्यादा ही सोचने लगता हूँ । तो प्रयास कम ही करता हूँ । मैं अपनी रोज ही जिंदगी रोज जी रहा हूँ । रोज कुआँ खोदता हूँ रोज पानी पीता हूँ । क्या मज़े है अपनी पीने का ।
यही सोचता हुआ ऑफिस के लिए रोज घर से निकलता हूँ ।वही बस में पुराने चेहरे , वही टिकेट काटने वाला वही गाते पर खड़े रहने वाला , वही बस की सबसे आगे की सीटों पर रोज बैठने वाली महिलाये(कुछ बालिकाएँ भी) वही रोड वही रास्ते । सोचता हूँ कब तक यूँ ही चलता जाऊंगा, कब जा कर विराम पाउँगा । इस रोज रोज झान्जह्त से कब में मुक्त हो पाउँगा ।
नित कुछ नया करने के उद्देश्य से नेट पर मेल चेक करता हूँ और कुछ नया ना पा कर फिर काम में लग जाता हूँ । काम का भी वही हाल है , मेरे से बुरा उसका हाल है । वो भी मेरे पास आ आ कर थक गया है उसे भी किसी और की दरकार है । बिना बात के काम है काम के काम है उसके बाद थोडा आराम है । पर कभी कभी उस आराम में भी थोडा काम है । और तो और आराम भी एक काम है ।
यही सोचता हूँ और काम कम आराम ज्यादा करता हूँ । चलो थोड़ी बस की बात हो जाये । बात थोड़ी पुरानी है बस में खड़े खड़े सफर कर रहा था की तभी कीर्तन की आवाज़ आई हरे कृष्णा हरे राम राम राम कुछ ऐसा ही था । मुझे ध्यान आया की यार रास्ते में तो ऐसा कोई मंदिर है नहीं जहाँ के भक्त इतने बहकती करने वाले हों । तभी बगल से सरकारी बस का द्रश्य साक्षात् दर्शन हुए और सारे के सारे ख्याल हकिकत में बदल गए । बस के पीछे वाली सीटों पर पूरी की पूरी कीर्तन मंडली बैठी थी । मेरे ख्याल से सरे के सारे एक ही ऑफिस के या एक ही कॉलोनी के रहे होंगे । वो पूरी तरह से तैयार खिलाड़ी लग रहे थे । क्योंकि वो ढोलक , मंजीरे और करताल से सुसज्जित थे । पूरी बस उस कीर्तन का आनंद ले रही थी । और सुनने वाले भी या कहे तो साथ चलने वाले भी । पर बस के अंदर या ये द्रश्य देखें में बड़ा ही अजीब लग रहा था पर आँखों और कानोंको उनके कीर्तन सुकून बड़े दे रहे थे । और अंदर से एक ही पुकार आ रही थी की चलो कम से कम दिल्ली जैसे शहर में ऐसा नज़ारा देखा जहाँ पर शायद दर्शन उनके दुर्लभ होते हैं जैसे दिल्ली में हैंडपंप । दुर्लभ से मेरा मतलब मंदिर से नहीं इंसानियत से है । मुझे उन भक्त जानो पर बहुत ही जायदा खुशी हुई की कैसे उन्होंने समय का सदुपयोग किया । आज कल के समय में हमें पूजा पाठ करने का टाइम नहीं होता । मैं बस से देखता हूँ की बहुत लोग कार के अंदर ही पूजा करते हैं । जूते उतार कर कार में ही हनुमान चालीसा या जो भी उनके इष्ट देव हो उनको याद कर लेते हैं । बड़े शहर में हर कोई समय का सदुपयोग करने में लगा है । कोई अखबार ले कर ही सुबह शौचालय में चला जाता है पूछो तो कहता है यार अंदर क्या करूँगा इसी बहाने अखबार भी पढ़ लूँगा। समय भी बचेगा मुझे ये समझ में नहीं अत है की एक साथ दो काम कैसे कर लेते हैं लोग वो भी निहांत एकाग्रता वाली जगह पर जन्हा पर कोई आवाज़ भी दे दे तो पूरी की पूरी मेहनत बेकार हो जाटी है । और नए सिरे से प्रयास करने होते है । अरे क्षमा चौंगा की बस की बात से पता नहीं कहाँ खस पे चला गया ।
बस में वियाग्रा गुरु का व्याख्यान, सफर में हुआ आराम बात को २-३ दिन बीत चुके हैं । मुझे नहीं पता ये २-३ दिन मेरे किस तरह बीते हैं ।समोसे वाली घटना के बाद में बड़े ही संभल कर बस में सीट चुनता हूँ । वक्त शाम का था ऑफिस से जाते हुए मैंने उस दिन समोसे के बजाय भुट्टे को प्राथमिकता दि । दिल्ली के भुट्टों में वो मज़ा नहीं है जो कानपूर के भुट्टों में में । वो कहते हैं ना दुधिया भुट्टा मैंने दिल्ली में बिकता नहीं देखा । दुधिया भुट्टे की बात ही निराली है क्या मुलायम दाने, नमक से साथ मुह में पानी की तरह घुलते है । बस में भुट्टों की महक ,में खो सा गया था । उसके बाद बस खाली मिली तो रहत भी मिली । मैं एक सीट पर चिपक कर बैठ गया । २-३ स्टॉप के बाद बस में थोड़ी भीढ़ हो गयी । जिससे लोगों की तादाद बढ़ गयी और वो पास पास आते चले गए । मेरे पास जो बस में खली जगह होती है वहाँ पर २ सज्जन से दिखने वाले व्यक्ति आ कर खड़े हो गए । दिखने में तो वो बड़े ही सज्जन पुरुष प्रतीत हो रहे थे पर ५ मिनट बाद प्रतीत से प्र हट गया और उनके तीत बहार आने लगे । उनमे से एक व्यक्ति तो बाबा वियाग्रा दास निकले । उनके पास हर मर्ज़ की दवा थी । जो अपने कई बार दीवारों पर देखा होगा पर कोई देख ना ले एस डर से जायदा नहीं देखा होगा या तेज़ी से पढ़ लिया होगा । उनके साथ वाला चाहे किसी भी बात पर बात करे बाबा उसमे एक शक्ति वर्धक दवाई जोड़ देते थे । और उनका निशाना बिलकुल सही जाता था । उनके पीछे उनके ही तर्क थे जिससे उनका सामने वाला पूरी तरह से संतुष्ठ हो जाता था । पता नहीं या तो वो पूरी तरह से नादान था या तो बाबा की भक्ति में लीन भक्त । वो उससे उस शक्ति वार्धर दवा के कई सच्ची कहानियाँ एक के बाद एक कर के सुना रहे थे और उनका बहकत बीच बीच में अपनी जिज्ञासा भी शांत कर रहा था की गुरु जी ऐसा क्यों होता है इसका कारण क्या है । और बाबा बड़े ही तन्मंता से उसकी बात का जवाब देते थे । उनकी बातों से मुझे लगा की बाबा का एक एक खानदान वासी उस शक्तिवर्धक दवा का ही परिणाम है । क्योंकि उनके अनुसार छोटा हो या बड़ा, साडू का बेटा हो या भाई का , या फिर बहिन का सब बाबा की दि हुई चमत्कारी दवाई के बल पर आज अपना नाम रोशन कर रहे हैं । वर्ना उनकी क्या मजाल की वो किसी लायक थे । पर बाबा में उनकी इस समस्या को तुरंत जाना और हल बाता कर उसका वैवाहिक जीवन तबाह होने से बचा लिया । और तो और उनका साफ़ कहना था की पुरुष अगर बिना उस दवाई के कुछ नहीं है । अर्थात शून्य है । इसके बाद तो उनका भक्त कुछ डर सा गया । मेरे हिसाब से उसकी उम्र कोई ३५-३६ के पास के आस पास होगी और बाबा भी लग्बह्ग इसी के करीब होगा ।पर बाबा था बड़ा जी जमा हुआ खिलाडी । सारी बातों का इस तरह से वैवाहिक जीवन से जोड़ कर उस व्यक्ति के दिलो-दिमाग पर छा जाने को बेताब था और उसके भक्त की बातों से लगा की वो बाबा सफल हो गया था । उन दोनों ने रास्ते भर कुछ एस तरह की बातें की और सवाल किये की मैं लिख नहीं सकता पर समझ जरूर गए होंगे । मेरा ये सोचना है ऐसे ही कम और नासमझ लोंगो का फायदा झोलाछाप डॉक्टर उठाते है और ना जाने क्या से क्या कर देते है व कई बार तो घर की इज्ज़त जाती है और कई इज्जत , लाज , मान मर्यादा और तो और अपने प्रिय की जान तक से हाथ धोना पड़ता है । कृप्या ऐसा कुछ ना करे ,,,,,,,,,,,,,,
बस में २ तरफ़ा हमला और मैं बेचारा अकेला कल मुझे एक जरूरी काम से कंही जाना था पर ऑफिस में थोड़े काम की वजह से में वो काम नहीं कर पाया । खैर उसका कोई मलाल नहीं । मैं भी रोज की तरह मस्ती में ऑफिस से घर की तरफ गुनगुनाते हुए निकला । इस बात से अनजान की आज बस में आज मेरे पर हमला होने वाला है । रास्ते में अचानक मेरी संवेदी तंत्रिकाओं ने कुछ जानी पहचानी खुशबू को महसूस किया । वो खुशबू गरमागरम समोसे की थी । ये मेरी कुछ कमजोरीयों में से एक है अगर मेरे पास जेब में रूपये पर्याप्त मात्र में हैं यअ थोड़े कम भी हैं तो में समोसे खा कर बाकि चीजों से समझोता कर सकता हूँ पर गरम समोसों से नहीं । मैंने तुरंत खुशबू की दिशा में कदम बढ़ा दिए । और समोसो को खा कर हो दम लिया । वो पुदीने वाले समोसे और पुदीने वाली चटनी के साथ लगता था अगर दिल्ली में कंही स्वर्ग है तो यंही है यंही है और यंही है । वैसे भी मैंने दिल्ली में इतने अच्छे और सस्ते (दिल्ली के हिसाब से ) समोसे शायद पहली बार खा रहा था । समोसे खाने की मेरी अपनी ही अदा है । अगर दुकान में जगह है तो में गरम समोसे वंही खाना पसंद करता हूँ वर्ना चलते चलते खाना में पसंद करता हूँ । एक बार समोसे एक बार चटनी , फिर समोसा फिर चटनी , बस यही क्रम चलता है । और बीच बीच में गरम आलू से जीभ का जलना भी बड़ा अच्छा लगता है पर संतोष नहीं होता की समोसे को ठंडा होने दू तब खाऊ । इन समोसे के चक्कर में कब बस स्टैंड पर पहुंचा पता ही नहीं चला । फिर भी मेरे समोसे मेरे हाथ की शोभा बढ़ा रहे थे । कुछ लोग के मुह में पानी और कुछ के जलन हो रही थी मेरे इस तरह खाने की अदायगी से । पर में भी मानने वाला कहाँ था चाहे समोसा कितना भी गरम क्यों ना हो । फिर जब बस आई तो जल्दी से उपर चढ़ना भी नहीं भुला सीट जो हथियानी थी । यहीं से मेरे रात की पीड़ा शुरू हुई । मैंने सीट तो हथिया ली पर जल्दी जल्दी में ये नहीं देखा की पिच कौन बैठा था । इसका एहसास मुझे बैठे और लगभग सभी अच्छी सीटों के भर जाने के बाद हुआ । मेरे पीछे जो जनाब बैठे थे वो शायद साउथ के कोई जनाब थे । और किसी महिला मित्र से अपनी भाषा में बतिया रहे थे । और ना जाने वो किस भाषा का प्रयाग कर रहे थे मुझे कभी वो तेलगु लगती कभी उड़िया तो कभी कुछ और । बस बीच बीच में कुछ संस्कृत के शब्द समझ में आ जाते और कभी कुछ इग्लिश के । मैं उन्ही शब्दों को सुन कर संतोष करने की कोशिश कर रहा था । ये सारे स्वर में दाहिने कानो से सुनाई दे रहे थे । और मेरे बाये काम में एक बहुत की प्रेमिका को समर्पित प्रेमी के शब्द उस अन्य राज्य वाले शब्दो के साथ में मस्तिष्क में मंथन कर रहे थे । वो अपनी प्रेमिका से बड़े ही अजीब तरीके से बात कर रहा था । वो कभी उससे प्यार से बात करता कभी गुस्से से उसका कुछ पता नहीं था की कब क्या कह दे । पर मेरे मस्तिष्क में एक अजीब से पीड़ा हो रही थी ना मुझे चैन था ना मुझे नींद । मुझे दोनों पर दया आ रही थी की देखो बेचारे कितने लगन भाव से सरकार को सेवा कर देने में लगे है और एक मैं हू की चुपचाप इनकी बात सुन रहा हूँ । उन दोनों की बात मेरे स्टॉप पर आने तक खतम नहीं हुई थी । में उनकी बात से कुछ इस क़द्र बेझिल हो गया था की मैंने एक स्टॉप पहले उतरने का निर्णय ले लिया । और अपनी सीट किसी और को देने का प्रयास किया वो मेरे पास वाले मुझसे ज्यादा चालाक निकले शायद वो उसको पहले से जानते थे और मेरी सीट खाली की खाली ही रही ।