रात में बस का सफर और फोर्मुला वन का अनुभव
अप्रैल 22, 2010
आज पूरे दिनों के बाद आपके सम्मुख हुआ हूँ । पिछले दो दिनों से कुछ भी न लिखा पाने का क्षमाप्राथी हूँ । पिछले २ दिन ऑफिस के काम में कुछ ज्यादा ही उलझा हुआ था जिसके कारण मैं अपने निजी ब्लॉग को अपडेट नहीं कर पाया । जिसका मुझे स्वयं बहुत दुःख है । ऐसा नहीं था की मैं ऑफिस के काम मैं इतना खो गया था की मैं थोडा समय भी नहीं निकाल सकता था । पर वो कहते है हरी खोजन को हरी चले हरी पहुचे हरी पास । कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ जब लिखने का मन करता तो कंप्यूटर खली नहीं मिलता और जब कंप्यूटर खाली मिलता तो लिखने का मन नहीं होता । आज दोनों का मिलन हुआ है तो पुरे दो दिनों के बाद आपके सम्मुख फिर से आया हूँ । मंगल मेरे लिए कुछ खास नहीं हुआ वही ऑफिस की भागदौड और वही काम । जब जाने का समय हुआ तो एक और प्रोजेक्ट चलो उसको भी खत्म किया और जाने की तैयारी शुरू की । जब समय देखा तो थोडा ज्यादा ही बता रहा था । फिर भी मैंने बहुत दिनों के बाद रात में ही बस का सफर करने की सोची । ऑफिस से स्टैंड पर जब पंहुचा तो आज का द्रश्य कुछ और था । और दिन यंह पर भीढ़ हुआ करती थी पर उस दिन सन्नाटा पसरा हुआ था । स्टैंड पर कोई नहीं था । मुझे लगा कंही मैंने आज कोई फैसला गलत तो नहीं ले लिया । लगभग १०-१५ खड़े होने के बाद मैंने देखा की ऑटो वालों की तो लाइन लगी हुई है और वो सब के सब मुझे अपने संभावित सवारी समझ कर मेरे आगे धीरे हो जाते थे । पर मैं तो बस का मुरीद । जैसे गोपियाँ कृष्ण की । कोई भी ऑटो वाला मेरा मन नहीं बदल पाया । मेरे ख्याल से उनकी बहुत से बद-दुआ मुझे लगी होगी । पर मेरा मन तो मेरी बस ले कर अपने साथ चल चुकी थी और अब तक मेरे सामने नहीं आई थी । उफ़ काश मैंने आज फिर कार मांग ली होती । मैंने सोचा था की बस मेरे सामने कड़ी हो गयी । और लग रह आता की जैसे मुस्कुरा रही है की आओ बैठो । मैंने उसकी इस अदा को भापा और बड़े प्यार से चढ गया । बस में ज्यादा सवारी नहीं थी । मेरे ख्याल से सब बस प्रेमी ही थे मैं टिकेट ले कर अपनी सीट पर बैठ गया । देखा कुछ लोग बस में लगभग सो चुके है । कुछ तो इतने गंभीर मुद्रा में सो रह थे की उनको इस बात का पता भी नहीं चलता था की बस कब रुकी और कब चल पड़ी । और लोंगो को मैंने बागी ही अजीब मुद्रा में सोते हुए देखा । किसी की टांग कंही और हाथ कंही और थे पर वो सोते हुए बड़े अच्छे लग रहे थे । मुझे उस दिन कैमरा वाले फोन की कमी सच मैं खली । पर कोई नहीं मेरा कोई हक नहीं बनता की मैंने बस में सोते हुए लोंगों की पिक्चर को अपने ब्लॉग में लगाऊं । टिकेट काटने वाले अंकल भी आधे सो आधे जाग रह थे । पर बस का ड्राईवर पूरी तरह सचेत था । जिसकी मुझे सबसे ज्यादा खुशी थी की ड्राईवर को अपने फर्ज की कितनी चिंता है । वो अपनी पूरी शिद्दत के साथ बस को खाली सड़क पर फोर्मुला वन कि तरह चला रहा था । ड्राईवर से मुझे फोर्मुला वन कि किसी कार मैं बैठे हुए सवारी या साथी का एहसास दिला रह आता फोर्मुला वन क्योंकि बस में हम दोनों ही पूरी तरह जाग रह थे । बाकि सब तो निद्रा में खोये हुए सपनो कि दुनिया मैं खोये हुए थे । आज रात्रि के सफर में मज़ा बहुत आया । समय का तो पता नहीं चला और न जाने कितनी जल्दी मेरा स्टॉप आ गया । स्टैंड पर बिताया हुआ १५ मिनट बस वाले कि रफ़्तार ने कवर कर दिए थे । काश रोज ड्राईवर इसे ही और इतने रफ़्तार में मुझे ऑफिस से घर पंहुचा दे तो क्या कहने । यही सोचता हुआ मैं अपने स्टॉप पे उतर गया ।
1 टिप्पणियाँ
Very nice.
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