वीकेंड्स और बस का मज़ा
अप्रैल 05, 2010वीकेंड का विदेशो में बड़ा चलन है मैंने सुना है की विदेशी वीकेंड्स पर शायद ही काम करते है । पर ये इंडिया है मेरे दोस्त यंह वीकेंड्स पर ज्यादा काम होता है । पर शानिवार को मेरे साथ किसी बहारी मुल्क के लोंगो जैसा ही व्यवहार किया गया ।
कोई काम नहीं ओन्ली आराम । जिसका मैंने भी खूब सुख लिया । और दोपहर तक कोई काम नहीं किया । और जिसका मुझे डर था वही हुआ मुझे नींद आने लगी । पर गनीमत ये रही की मुझे ऑफिस से छुट्टी मिल गयी । और मैं घर की तरफ चल निकला बहुत दिनों के बाद पता चला की मार्च मैं गर्मी का मतलब क्या होता है और क्यों और कैसे ठंडा मतलब कोका कोला(काला) बना प्रसून जोशी भी इसे किसी गर्मी के शिकार हुए होंगे जब उन्हें ये शब्द याद आये होंगे । और बहुत दिनों के बाद ऑफिस के ऐसी को मिस किया । चलो कोई नहीं घर जाने की खुशी थी की चलो आज तो जल्दी घर जा रहा हूँ । शायद इसका पता सबको चल गया था तभी मुझे बस बस स्टैंड से बहुत पहले मिल गयी । इसका कारण था की जिस रूट से बस रोज जाती थी उस रूट पर जाम लगा था तो बस ने अपना रूट बदल लिया और वो मेरे रूट पर आ गयी ।
उस दिन की सबसे अच्छी बात ये रही की बस का माहौल बड़ा ही मज़ेदार था । मैंने इतनी शांत इतनी सुन्दर बस कभी नहीं देखी थी या यूँ कहू की बहुत बहुत दिनों के बाद देखी थी ।क्योंकि बस पूरी तरह से खाली थी और मैं बस का एक एक हिस्सा देख सकता था । मैं अपनी टिकट ले कर बस में बैठ गया । आज बस को देख कर लगता था की बस बस के बस में बस जाऊ । जितनी सीट उतनी सवारी न कम न ज्यादा हिसाब पूरा बराबर । उसको देख कर एक कहावत याद आती है जिसे मैंने बस के अनुसार बदल दिया है “ जितनी सीट उतनी ही सवारी और जितने सवारी उतनी ही सीट ”(Every thing has place and every place has a thing ) । मेरे ख्याल में दिल्ली की बहुत से लोंगो ने ये नज़ारा नहीं देखा होगा या अगर देखा भी होगा तो ये उनके जीवन का बेहतरीन नजारों में से एक होगा । और ये सिलसिला मेरे स्टॉप तक चलता रहा सबसे अद्भुत बात तो ये रही की कभी भी बस में कोई सीट खाली नहीं हुई और न ही कोई खड़ा रहा । शायद मेरे अलावा किसी ने गौर किया होगा या नहीं मुझे नहीं पता पर में जरूर कर रहा था । मेरे अब तक के बस इतिहास में ऐसा मैंने पहली बार गौर किया होगा ।अब इसे ब्लॉग की उपज मान ले या मेरे अंतर्मन की । पर वो दिन बड़ा शानदार रहा था । और तो और जब मैं बस से उतरा तो अकेला और चड़ने वाला भी एक था । वो बस मुझे आज भी याद आती है । एक बड़ी ही मजेदार बात हुई आज सुबह हुआ ये की आज सोमवार होने के कारन बस मन बहुत भीड़ थी तो एक सज्जन महिला सीट पर बैठे थे उनके पीछे भी महिला ही सीट थी जिस पर भी एक सज्जन ही बैठे थे । किसी स्टॉप पर एक महिला बस मैं सवार हो गयी तो पीछे बैठे सज्जन ने आगे बैठे वाले सज्जन से कहा की आप महिला सीट पर बैठे है कृपया उठ जाये इस पर आगे वाले सज्जन को गुस्सा आ गया और बोले आप भी तो महिला सीट पर बैठे है आप क्यों नहीं दे देते अपनी सीट जो मुझसे कह रहे है । अब इसके बाद तो मज़ा आ गया जो बता बाती शुरू हुई और अच्छे अच्छे संवाद बोले गए उनका क्या कहना । बात बिलकुल सही थी चूँकि कोई महिला सीट पर बैठा है या तो वो स्वयं सीट दे दे उसको दूसरों को नहीं कहना चाहिए क्योंकि वो खुद गलत है । ऐसा मेरा मनना है । पर उस क्षण मैं सिर्फ सुन सका था । मैं खुद महिला सीट पर बैठने से बचता हू और अगर मजबूरीवश बैठ भी जाऊ तो सोचता हू कोई महिला बस मैं न चढ़े । ताकि मेरी सीट बची रहे । आपको तो पता है न सीट कितनी जरूरत की चीज़ है बस मैं ।
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